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लूका रचित सुसमाचार

लेखक

प्राचीन लेखकों का एकमत से मानना है कि, इस पुस्तक का लेखक वैद्य लूका है, और अपनी इस पुस्तक के आधार पर वह द्वितीय पीढ़ी का मसीही विश्वासी प्रतीत होता है। परम्परा के अनुसार वह एक अन्यजाति विश्वासी था। मुख्यतः वह एक सुसमाचार प्रचारक था। उसने मसीह के शुभ सन्देश का वृत्तान्त एवं प्रेरितों के काम की पुस्तकें लिखी थीं। वह मसीही प्रचार कार्य में पौलुस का सहकर्मी भी रहा था (कुलु. 4:14, 2 तीमु. 4:11; 11:1)।

लेखन तिथि एवं स्थान

लगभग ई.स. 60-80

लूका ने इस पुस्तक को कैसरिया में लिखना आरम्भ किया और रोम में आकर उसे पूरा किया। लिखने के मुख्य स्थान बैतलहम, गलील, यहूदिया और यरूशलेम रहे होंगे।

प्रापक

लूका द्वारा मसीह के शुभ सन्देश की यह पुस्तक थियुफिलुस को समर्पित है। थियुफिलुस का अर्थ है “परमेश्वर से प्रेम करनेवाला”। यह स्पष्ट नहीं है कि वह मसीही विश्वासी था या विश्वासी बनना चाहता था। यह तथ्य कि लूका उसे “अत्युत्तम” कहकर संबोधित करता है 1:3, यह सुझाव देता है कि वह एक रोमी उच्च पद का अधिकारी रहा होगा। अनेक प्रमाण अन्यजाति पाठकों की ओर संकेत करते हैं। उसकी प्रमुख अभिव्यक्तियाँ थीं, “मनुष्य का पुत्र” और “परमेश्वर का राज्य” (लूका 5:24; 19:10; 17:20-21; 13:18)।

उद्देश्य

यीशु के जीवन का वृत्तान्त लिखते हुए, लूका यीशु को “मनुष्य का पुत्र” कहता है। उसने थियुफिलुस को लिखा कि, जिन बातों की शिक्षा उसे दी गई है उनकी उचित समझ उसे प्राप्त हो (लूका 1:4)। लूका सताव के समय अपने लेखों द्वारा मसीही विश्वास की रक्षा कर रहा था कि थियुफिलुस को समझ प्राप्त हो कि यीशु के अनुयायियों में अनिष्ट या बुराई वाली कोई बात नहीं है।

मूल विषय

यीशु- एक उत्तम व्यक्ति

रूपरेखा

1. यीशु का जन्म एवं आरम्भिक जीवन — 1:5-2:52

2. यीशु की सेवा का आरम्भ — 3:1 - 4:13

3. उद्धार का कर्ता यीशु — 4:14-9:50

4. यीशु का क्रूस की ओर बढ़ना — 9:51-19:27

5. यरूशलेम में यीशु का विजय प्रवेश, क्रूसीकरण और पुनरूत्थान — 19:28-24:53

लूका का उद्देश्य

1  1 बहुतों ने उन बातों का जो हमारे बीच में बीती हैं, इतिहास लिखने में हाथ लगाया है।

2 जैसा कि उन्होंने जो पहले ही से इन बातों के देखनेवाले और वचन के सेवक थे हम तक पहुँचाया।

3 इसलिए हे श्रीमान थियुफिलुस मुझे भी यह उचित मालूम हुआ कि उन सब बातों का सम्पूर्ण हाल आरम्भ से ठीक-ठीक जाँच करके उन्हें तेरे लिये क्रमानुसार लिखूँ,

4 कि तू यह जान ले, कि वे बातें जिनकी तूने शिक्षा पाई है, कैसी अटल हैं।

जकर्याह और एलीशिबा

5 यहूदिया के राजा हेरोदेस के समय अबिय्याह के दल में जकर्याह नाम का एक याजक था, और उसकी पत्नी हारून के वंश की थी, जिसका नाम एलीशिबा था।

6 और वे दोनों परमेश्वर के सामने धर्मी थे, और प्रभु की सारी आज्ञाओं और विधियों पर निर्दोष चलनेवाले थे।

7 उनके कोई सन्तान न थी, क्योंकि एलीशिबा बाँझ थी, और वे दोनों बूढ़े थे।

स्वर्गदूत द्वारा यूहन्ना के जन्म की भविष्यद्वाणी

8 जब वह अपने दल की पारी पर परमेश्वर के सामने याजक का काम करता था।

9 तो याजकों की रीति के अनुसार उसके नाम पर चिट्ठी निकली, कि प्रभु के मन्दिर में जाकर धूप जलाए। (निर्ग. 30:7)

10 और धूप जलाने के समय लोगों की सारी मण्डली बाहर प्रार्थना कर रही थी।

11 कि प्रभु का एक स्वर्गदूत धूप की वेदी की दाहिनी ओर खड़ा हुआ उसको दिखाई दिया।

12 और जकर्याह देखकर घबराया और उस पर बड़ा भय छा गया।

13 परन्तु स्वर्गदूत ने उससे कहा, “हे जकर्याह, भयभीत न हो क्योंकि तेरी प्रार्थना सुन ली गई है और तेरी पत्नी एलीशिबा से तेरे लिये एक पुत्र उत्पन्न होगा, और तू उसका नाम यूहन्ना रखना।

14 और तुझे आनन्द और हर्ष होगा और बहुत लोग उसके जन्म के कारण आनन्दित होंगे।

15 क्योंकि वह प्रभु के सामने महान होगा; और दाखरस और मदिरा कभी न पीएगा; और अपनी माता के गर्भ ही से पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो जाएगा। (इफि. 5:18, न्याय. 13:4,5)

16 और इस्राएलियों में से बहुतों को उनके प्रभु परमेश्वर की ओर फेरेगा।

17 वह एलिय्याह की आत्मा और सामर्थ्य में होकर उसके आगे-आगे चलेगा, कि पिताओं का मन बाल-बच्चों की ओर फेर दे; और आज्ञा न माननेवालों को धर्मियों की समझ पर लाए; और प्रभु के लिये एक योग्य प्रजा तैयार करे।” (मला. 4:5,6)

18 जकर्याह ने स्वर्गदूत से पूछा, “यह मैं कैसे जानूँ? क्योंकि मैं तो बूढ़ा हूँ; और मेरी पत्नी भी बूढ़ी हो गई है।”

19 स्वर्गदूत ने उसको उत्तर दिया, “मैं गब्रिएल[fn] हूँ, जो परमेश्वर के सामने खड़ा रहता हूँ; और मैं तुझ से बातें करने और तुझे यह सुसमाचार सुनाने को भेजा गया हूँ। (दानि. 8:16, दानि. 9:21)

20 और देख, जिस दिन तक ये बातें पूरी न हो लें, उस दिन तक तू मौन रहेगा, और बोल न सकेगा, इसलिए कि तूने मेरी बातों की जो अपने समय पर पूरी होंगी, विश्वास न किया।”

21 लोग जकर्याह की प्रतीक्षा करते रहे और अचम्भा करने लगे कि उसे मन्दिर में ऐसी देर क्यों लगी?

22 जब वह बाहर आया, तो उनसे बोल न सका अतः वे जान गए, कि उसने मन्दिर में कोई दर्शन पाया है; और वह उनसे संकेत करता रहा, और गूँगा रह गया।

23 जब उसकी सेवा के दिन पूरे हुए, तो वह अपने घर चला गया।

24 इन दिनों के बाद उसकी पत्नी एलीशिबा गर्भवती हुई; और पाँच महीने तक अपने आपको यह कह के छिपाए रखा।

25 “मनुष्यों में मेरा अपमान दूर करने के लिये प्रभु ने इन दिनों में कृपादृष्टि करके मेरे लिये ऐसा किया है।” (उत्प. 30:23)

स्वर्गदूत का मरियम के सामने प्रगट होना

26 छठवें महीने में परमेश्वर की ओर से गब्रिएल स्वर्गदूत गलील के नासरत नगर में,

27 एक कुँवारी के पास भेजा गया। जिसकी मंगनी यूसुफ नाम दाऊद के घराने के एक पुरुष से हुई थी: उस कुँवारी का नाम मरियम था।

28 और स्वर्गदूत ने उसके पास भीतर आकर कहा, “आनन्द और जय तेरी हो, जिस पर परमेश्वर का अनुग्रह हुआ है! प्रभु तेरे साथ है!”

29 वह उस वचन से बहुत घबरा गई, और सोचने लगी कि यह किस प्रकार का अभिवादन है?

30 स्वर्गदूत ने उससे कहा, “हे मरियम; भयभीत न हो, क्योंकि परमेश्वर का अनुग्रह तुझ पर हुआ है।

31 और देख, तू गर्भवती होगी, और तेरे एक पुत्र उत्पन्न होगा; तू उसका नाम यीशु रखना। (यशा. 7:14)

32 वह महान होगा; और परमप्रधान का पुत्र कहलाएगा; और प्रभु परमेश्वर उसके पिता दाऊद का सिंहासन उसको देगा। (भज. 132:11, यशा. 9:6-7)

33 और वह याकूब के घराने पर सदा राज्य करेगा; और उसके राज्य का अन्त न होगा।” (2 शमू. 7:12,16, इब्रा. 1:8, दानि. 2:44)

34 मरियम ने स्वर्गदूत से कहा, “यह कैसे होगा? मैं तो पुरुष को जानती ही नहीं।”

35 स्वर्गदूत ने उसको उत्तर दिया, “पवित्र आत्मा तुझ पर उतरेगा, और परमप्रधान की सामर्थ्य तुझ पर छाया करेगी; इसलिए वह पवित्र[fn] जो उत्पन्न होनेवाला है, परमेश्वर का पुत्र कहलाएगा।

36 और देख, और तेरी कुटुम्बिनी एलीशिबा के भी बुढ़ापे में पुत्र होनेवाला है, यह उसका, जो बाँझ कहलाती थी छठवाँ महीना है।

37 परमेश्वर के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।” (मत्ती 19:26, यिर्म. 32:27)

38 मरियम ने कहा, “देख, मैं प्रभु की दासी हूँ, तेरे वचन के अनुसार मेरे साथ ऐसा हो।” तब स्वर्गदूत उसके पास से चला गया।

इलीशिबा के पास मरियम का जाना

39 उन दिनों में मरियम उठकर शीघ्र ही पहाड़ी देश में यहूदा के एक नगर को गई।

40 और जकर्याह के घर में जाकर एलीशिबा को नमस्कार किया।

41 जैसे ही एलीशिबा ने मरियम का नमस्कार सुना, वैसे ही बच्चा उसके पेट में उछला, और एलीशिबा पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो गई।

42 और उसने बड़े शब्द से पुकारकर कहा, “तू स्त्रियों में धन्य है, और तेरे पेट का फल धन्य है!

43 और यह अनुग्रह मुझे कहाँ से हुआ, कि मेरे प्रभु की माता मेरे पास आई?

44 और देख जैसे ही तेरे नमस्कार का शब्द मेरे कानों में पड़ा वैसे ही बच्चा मेरे पेट में आनन्द से उछल पड़ा।

45 और धन्य है, वह जिसने विश्वास किया कि जो बातें प्रभु की ओर से उससे कही गई, वे पूरी होंगी।”

मरियम द्वारा परमेश्वर की स्तुति

46 तब मरियम ने कहा,

“मेरा प्राण प्रभु की बड़ाई करता है।

47 और मेरी आत्मा मेरे उद्धार करनेवाले

परमेश्वर से आनन्दित हुई। (1 शमू. 2:1)

48 क्योंकि उसने अपनी दासी की दीनता पर

दृष्टि की है;

इसलिए देखो, अब से सब युग-युग

के लोग मुझे धन्य कहेंगे। (1 शमू. 1:11, लूका 1:42, मला. 3:12)

49 क्योंकि उस शक्तिमान ने मेरे लिये बड़े-

बड़े काम किए हैं, और उसका नाम पवित्र है।

50 और उसकी दया उन पर,

जो उससे डरते हैं,

पीढ़ी से पीढ़ी तक बनी रहती है। (भज. 103:17)

51 उसने अपना भुजबल दिखाया,

और जो अपने मन में घमण्ड करते थे,

उन्हें तितर-बितर किया। (2 शमू. 22:28, भज. 89:10)

52 उसने शासकों को सिंहासनों से

गिरा दिया;

और दीनों को ऊँचा किया। (1 शमू. 2:7, अय्यू. 5:11, भज. 113:7,8)

53 उसने भूखों को अच्छी वस्तुओं से

तृप्त किया,

और धनवानों को खाली हाथ निकाल दिया। (1 शमू. 2:5, भज. 107:9)

54 उसने अपने सेवक इस्राएल को सम्भाल

लिया कि अपनी उस दया को स्मरण करे, (भज. 98:3, यशा. 41:8,9)

55 जो अब्राहम और उसके वंश पर सदा रहेगी,

जैसा उसने हमारे पूर्वजों से कहा था।” (उत्प. 22:17, मीका 7:20)

56 मरियम लगभग तीन महीने उसके साथ रहकर अपने घर लौट गई।

यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले का जन्म

57 तब एलीशिबा के जनने का समय पूरा हुआ, और वह पुत्र जनी।

58 उसके पड़ोसियों और कुटुम्बियों ने यह सुनकर, कि प्रभु ने उस पर बड़ी दया की है, उसके साथ आनन्दित हुए।

59 और ऐसा हुआ कि आठवें दिन वे बालक का खतना करने आए और उसका नाम उसके पिता के नाम पर जकर्याह रखने लगे। (उत्प. 17:12, लैव्य. 12:3)

60 और उसकी माता ने उत्तर दिया, “नहीं; वरन् उसका नाम यूहन्ना रखा जाए।”

61 और उन्होंने उससे कहा, “तेरे कुटुम्ब में किसी का यह नाम नहीं।”

62 तब उन्होंने उसके पिता से संकेत करके पूछा कि तू उसका नाम क्या रखना चाहता है?

63 और उसने लिखने की पट्टी मँगवाकर लिख दिया, “उसका नाम यूहन्ना है,” और सभी ने अचम्भा किया।

64 तब उसका मुँह और जीभ तुरन्त खुल गई; और वह बोलने और परमेश्वर की स्तुति करने लगा।

65 और उसके आस-पास के सब रहनेवालों पर भय छा गया; और उन सब बातों की चर्चा यहूदिया के सारे पहाड़ी देश में फैल गई।

66 और सब सुननेवालों ने अपने-अपने मन में विचार करके कहा, “यह बालक कैसा होगा?” क्योंकि प्रभु का हाथ उसके साथ था।

जकर्याह की भविष्यद्वाणी

67 और उसका पिता जकर्याह पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो गया, और भविष्यद्वाणी करने लगा।

68 “प्रभु इस्राएल का परमेश्वर धन्य हो,

कि उसने अपने लोगों पर दृष्टि की

और उनका छुटकारा किया है, (भज. 111:9, भज. 41:13)

69 और अपने सेवक दाऊद के घराने में

हमारे लिये एक उद्धार का सींग[fn]

निकाला, (भज. 132:17, यिर्म. 30:9)

70 जैसे उसने अपने पवित्र भविष्यद्वक्ताओं

के द्वारा जो जगत के आदि से होते

आए हैं, कहा था,

71 अर्थात् हमारे शत्रुओं से, और हमारे सब

बैरियों के हाथ से हमारा उद्धार किया है; (भज. 106:10)

72 कि हमारे पूर्वजों पर दया करके अपनी

पवित्र वाचा का स्मरण करे,

73 और वह शपथ जो उसने हमारे पिता

अब्राहम से खाई थी, (उत्प. 17:7, भज. 105:8,9)

74 कि वह हमें यह देगा, कि हम अपने

शत्रुओं के हाथ से छूटकर,

75 उसके सामने पवित्रता और धार्मिकता

से जीवन भर निडर रहकर उसकी सेवा करते रहें।

76 और तू हे बालक, परमप्रधान का

भविष्यद्वक्ता कहलाएगा[fn],

क्योंकि तू प्रभु के मार्ग तैयार करने

के लिये उसके आगे-आगे चलेगा, (मला. 3:1, यशा. 40:3)

77 कि उसके लोगों को उद्धार का ज्ञान दे,

जो उनके पापों की क्षमा से प्राप्त होता है।

78 यह हमारे परमेश्वर की उसी बड़ी करुणा से होगा;

जिसके कारण ऊपर से हम पर भोर का प्रकाश उदय होगा।

79 कि अंधकार और मृत्यु की छाया में बैठनेवालों को ज्योति दे,

और हमारे पाँवों को कुशल के मार्ग में सीधे चलाए।” (यशा. 58:8, यशा. 60:1,2, यशा. 9:2)

80 और वह बालक यूहन्ना, बढ़ता और आत्मा में बलवन्त होता गया और इस्राएल पर प्रगट होने के दिन तक जंगलों में रहा।

बैतलहम में यीशु का जन्म

2  1 उन दिनों में औगुस्तुस कैसर की ओर से आज्ञा निकली, कि सारे रोमी साम्राज्य के लोगों के नाम लिखे जाएँ।

2 यह पहली नाम लिखाई उस समय हुई, जब क्विरिनियुस[fn] सीरिया का राज्यपाल था।

3 और सब लोग नाम लिखवाने के लिये अपने-अपने नगर को गए।

4 अतः यूसुफ भी इसलिए कि वह दाऊद के घराने और वंश का था, गलील के नासरत नगर से यहूदिया में दाऊद के नगर बैतलहम को गया।

5 कि अपनी मंगेतर मरियम के साथ जो गर्भवती थी नाम लिखवाए।

6 उनके वहाँ रहते हुए उसके जनने के दिन पूरे हुए।

7 और वह अपना पहिलौठा पुत्र जनी और उसे कपड़े में लपेटकर चरनी में रखा; क्योंकि उनके लिये सराय में जगह न थी।

चरवाहों को स्वर्गदूत का सन्देश

8 और उस देश में कितने गड़ेरिये थे, जो रात को मैदानों में रहकर अपने झुण्ड का पहरा देते थे।

9 और परमेश्वर का एक दूत उनके पास आ खड़ा हुआ; और प्रभु का तेज उनके चारों ओर चमका, और वे बहुत डर गए।

10 तब स्वर्गदूत ने उनसे कहा, “मत डरो; क्योंकि देखो, मैं तुम्हें बड़े आनन्द का सुसमाचार सुनाता हूँ; जो सब लोगों के लिये होगा,

11 कि आज दाऊद के नगर में तुम्हारे लिये एक उद्धारकर्ता जन्मा है, और वही मसीह प्रभु है।

12 और इसका तुम्हारे लिये यह चिन्ह है, कि तुम एक बालक को कपड़े में लिपटा हुआ और चरनी में पड़ा पाओगे।”

13 तब एकाएक उस स्वर्गदूत के साथ स्वर्गदूतों का दल परमेश्वर की स्तुति करते हुए और यह कहते दिखाई दिया,

14 “आकाश में परमेश्वर की महिमा और

पृथ्वी पर उन मनुष्यों में जिनसे वह प्रसन्न है शान्ति हो।”

चरवाहों का बैतलहम को जाना

15 जब स्वर्गदूत उनके पास से स्वर्ग को चले गए, तो गड़ेरियों ने आपस में कहा, “आओ, हम बैतलहम जाकर यह बात जो हुई है, और जिसे प्रभु ने हमें बताया है, देखें।”

16 और उन्होंने तुरन्त जाकर मरियम और यूसुफ को और चरनी में उस बालक को पड़ा देखा।

17 इन्हें देखकर उन्होंने वह बात जो इस बालक के विषय में उनसे कही गई थी, प्रगट की।

18 और सब सुननेवालों ने उन बातों से जो गड़ेरियों ने उनसे कहीं आश्चर्य किया।

19 परन्तु मरियम ये सब बातें अपने मन में रखकर सोचती रही।

20 और गड़ेरिये जैसा उनसे कहा गया था, वैसा ही सब सुनकर और देखकर परमेश्वर की महिमा और स्तुति करते हुए लौट गए।

यीशु का खतना और नामकरण

21 जब आठ दिन पूरे हुए, और उसके खतने का समय आया, तो उसका नाम यीशु रखा गया, यह नाम स्वर्गदूत द्वारा, उसके गर्भ में आने से पहले दिया गया था। (उत्प. 17:12, लैव्य. 12:3)

22 और जब मूसा की व्यवस्था के अनुसार मरियम के शुद्ध होने के दिन पूरे हुए तो यूसुफ और मरियम उसे यरूशलेम में ले गए, कि प्रभु के सामने लाएँ। (लैव्य. 12:6)

23 जैसा कि प्रभु की व्यवस्था में लिखा है: “हर एक पहिलौठा प्रभु के लिये पवित्र ठहरेगा।” (निर्ग. 13:2,12)

24 और प्रभु की व्यवस्था के वचन के अनुसार, “पण्‍डुकों का एक जोड़ा, या कबूतर के दो बच्चे लाकर बलिदान करें।” (लैव्य. 12:8)

शमौन की भविष्यद्वाणी

25 उस समय यरूशलेम में शमौन नामक एक मनुष्य था, और वह मनुष्य धर्मी और भक्त था; और इस्राएल की शान्ति की प्रतीक्षा कर रहा था, और पवित्र आत्मा उस पर था।

26 और पवित्र आत्मा के द्वारा प्रकट हुआ, कि जब तक तू प्रभु के मसीह को देख न लेगा, तब-तक मृत्यु को न देखेगा।

27 और वह आत्मा के सिखाने से मन्दिर में आया; और जब माता-पिता उस बालक यीशु को भीतर लाए, कि उसके लिये व्यवस्था की रीति के अनुसार करें,

28 तो उसने उसे अपनी गोद में लिया और परमेश्वर का धन्यवाद करके कहा:

29 “हे प्रभु, अब तू अपने दास को अपने

वचन के अनुसार शान्ति से विदा कर दे;

30 क्योंकि मेरी आँखों ने तेरे उद्धार को देख

लिया है।

31 जिसे तूने सब देशों के लोगों के सामने

तैयार किया है। (यशा. 40:5)

32 कि वह अन्यजातियों को सत्य प्रकट करने के

लिए एक ज्योति होगा,

और तेरे निज लोग इस्राएल की महिमा हो।” (यशा. 42:6, यशा. 49:6)

33 और उसका पिता और उसकी माता इन बातों से जो उसके विषय में कही जाती थीं, आश्चर्य करते थे।

34 तब शमौन ने उनको आशीष देकर, उसकी माता मरियम से कहा, “देख, वह तो इस्राएल में बहुतों के गिरने, और उठने के लिये, और एक ऐसा चिन्ह होने के लिये ठहराया गया है, जिसके विरोध में बातें की जाएँगी (यशा. 8:14-15)

35 (वरन् तेरा प्राण भी तलवार से आर-पार छिद जाएगा) इससे बहुत हृदयों के विचार प्रगट होंगे।”

हन्नाह द्वारा गवाही

36 और आशेर के गोत्र में से हन्नाह नामक फनूएल की बेटी एक भविष्यद्वक्तिन[fn] थी: वह बहुत बूढ़ी थी, और विवाह होने के बाद सात वर्ष अपने पति के साथ रह पाई थी।

37 वह चौरासी वर्ष की विधवा थी: और मन्दिर को नहीं छोड़ती थी पर उपवास और प्रार्थना कर करके रात-दिन उपासना किया करती थी।

38 और वह उस घड़ी वहाँ आकर परमेश्वर का धन्यवाद करने लगी, और उन सभी से, जो यरूशलेम के छुटकारे की प्रतीक्षा कर रहे थे, उसके विषय में बातें करने लगी। (यशा. 52:9)

यूसुफ और मरियम का घर लौटना

39 और जब वे प्रभु की व्यवस्था के अनुसार सब कुछ निपटा चुके तो गलील में अपने नगर नासरत को फिर चले गए।

40 और बालक बढ़ता, और बलवन्त होता, और बुद्धि से परिपूर्ण होता गया; और परमेश्वर का अनुग्रह उस पर था।

बालक यीशु मन्दिर में

41 उसके माता-पिता प्रतिवर्ष फसह के पर्व में यरूशलेम को जाया करते थे। (निर्ग. 12:24-27, व्यव. 16:1-8)

42 जब वह बारह वर्ष का हुआ, तो वे पर्व की रीति के अनुसार यरूशलेम को गए।

43 और जब वे उन दिनों को पूरा करके लौटने लगे, तो वह बालक यीशु यरूशलेम में रह गया; और यह उसके माता-पिता नहीं जानते थे।

44 वे यह समझकर, कि वह और यात्रियों के साथ होगा, एक दिन का पड़ाव निकल गए: और उसे अपने कुटुम्बियों और जान-पहचानवालों में ढूँढ़ने लगे।

45 पर जब नहीं मिला, तो ढूँढ़ते-ढूँढ़ते यरूशलेम को फिर लौट गए।

46 और तीन दिन के बाद उन्होंने उसे मन्दिर में उपदेशकों के बीच में बैठे, उनकी सुनते और उनसे प्रश्न करते हुए पाया।

47 और जितने उसकी सुन रहे थे, वे सब उसकी समझ और उसके उत्तरों से चकित थे।

48 तब वे उसे देखकर चकित हुए और उसकी माता ने उससे कहा, “हे पुत्र, तूने हम से क्यों ऐसा व्यवहार किया? देख, तेरा पिता और मैं कुढ़ते हुए तुझे ढूँढ़ते थे।”

49 उसने उनसे कहा, “तुम मुझे क्यों ढूँढ़ते थे? क्या नहीं जानते थे, कि \+wjमुझे अपने पिता के भवन में[fn] \+wj* होना अवश्य है?”

50 परन्तु जो बात उसने उनसे कही, उन्होंने उसे नहीं समझा।

51 तब वह उनके साथ गया, और नासरत में आया, और उनके वश में रहा; और उसकी माता ने ये सब बातें अपने मन में रखीं।

52 और यीशु बुद्धि और डील-डौल में और परमेश्वर और मनुष्यों के अनुग्रह में बढ़ता गया। (1 शमू. 2:26, नीति. 3:4)

यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले का सन्देश

3  1 तिबिरियुस कैसर के राज्य के पन्द्रहवें वर्ष में जब पुन्तियुस पिलातुस यहूदिया का राज्यपाल था, और गलील में हेरोदेस इतूरैया, और त्रखोनीतिस में, उसका भाई फिलिप्पुस, और अबिलेने में लिसानियास चौथाई के राजा थे।

2 और जब हन्ना और कैफा महायाजक[fn] थे, उस समय परमेश्वर का वचन जंगल में जकर्याह के पुत्र यूहन्ना के पास पहुँचा।

3 और वह यरदन के आस-पास के सारे प्रदेश में आकर, पापों की क्षमा के लिये मन फिराव के बपतिस्मा का प्रचार करने लगा।

4 जैसे यशायाह भविष्यद्वक्ता के कहे हुए वचनों की पुस्तक में लिखा है:

“जंगल में एक पुकारनेवाले का शब्द हो रहा है कि,

‘प्रभु का मार्ग तैयार करो, उसकी सड़कें सीधी करो।

5 हर एक घाटी भर दी जाएगी, और हर एक

पहाड़ और टीला नीचा किया जाएगा;

और जो टेढ़ा है सीधा, और जो ऊँचा नीचा

है वह चौरस मार्ग बनेगा।

6 और हर प्राणी परमेश्वर के उद्धार को देखेगा।’” (यशा. 40:3-5)

7 जो बड़ी भीड़ उससे बपतिस्मा लेने को निकलकर आती थी, उनसे वह कहता था, “हे साँप के बच्चों, तुम्हें किसने चेतावनी दी, कि आनेवाले क्रोध से भागो?

8 अतः मन फिराव के योग्य फल लाओ: और अपने-अपने मन में यह न सोचो, कि हमारा पिता अब्राहम है; क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ, कि परमेश्वर इन पत्थरों से अब्राहम के लिये सन्तान उत्पन्न कर सकता है।

9 और अब कुल्हाड़ा पेड़ों की जड़ पर रखा हुआ है, इसलिए जो-जो पेड़ अच्छा फल नहीं लाता, वह काटा और आग में झोंका जाता है।”

10 और लोगों ने उससे पूछा, “तो हम क्या करें?”

11 उसने उन्हें उतर दिया, “जिसके पास दो कुर्ते हों? वह उसके साथ जिसके पास नहीं हैं बाँट ले और जिसके पास भोजन हो, वह भी ऐसा ही करे।”

12 और चुंगी लेनेवाले भी बपतिस्मा लेने आए, और उससे पूछा, “हे गुरु, हम क्या करें?”

13 उसने उनसे कहा, “जो तुम्हारे लिये ठहराया गया है, उससे अधिक न लेना।”

14 और सिपाहियों ने भी उससे यह पूछा, “हम क्या करें?” उसने उनसे कहा, “किसी पर उपद्रव न करना, और न झूठा दोष लगाना, और अपनी मजदूरी पर सन्तोष करना।”

15 जब लोग आस लगाए हुए थे, और सब अपने-अपने मन में यूहन्ना के विषय में विचार कर रहे थे, कि क्या यही मसीह तो नहीं है।

16 तो यूहन्ना ने उन सब के उत्तर में कहा, “मैं तो तुम्हें पानी से बपतिस्मा देता हूँ, परन्तु वह आनेवाला है, जो मुझसे शक्तिशाली है; मैं तो इस योग्य भी नहीं, कि उसके जूतों का फीता खोल सकूँ, वह तुम्हें पवित्र आत्मा और आग से बपतिस्मा देगा।

17 उसका सूप, उसके हाथ में है; और वह अपना खलिहान अच्छी तरह से साफ करेगा; और गेहूँ को अपने खत्ते में इकट्ठा करेगा, परन्तु भूसी को उस आग में जो बुझने की नहीं जला देगा।”

18 अतः वह बहुत सी शिक्षा दे देकर लोगों को सुसमाचार सुनाता रहा।

हेरोदेस द्वारा यूहन्ना को बन्दीगृह में डालना

19 परन्तु उसने चौथाई देश के राजा हेरोदेस को उसके भाई फिलिप्पुस की पत्नी हेरोदियास के विषय, और सब कुकर्मों के विषय में जो उसने किए थे, उलाहना दिया।

20 इसलिए हेरोदेस ने उन सबसे बढ़कर यह कुकर्म भी किया, कि यूहन्ना को बन्दीगृह में डाल दिया।

यूहन्ना द्वारा यीशु का बपतिस्मा

21 जब सब लोगों ने बपतिस्मा लिया, और यीशु भी बपतिस्मा लेकर प्रार्थना कर रहा था, तो आकाश खुल गया।

22 और पवित्र आत्मा शारीरिक रूप में[fn] कबूतर के समान उस पर उतरा, और यह आकाशवाणी हुई “तू मेरा प्रिय पुत्र है, मैं तुझ से प्रसन्न हूँ।”

यीशु की वंशावली

23 जब यीशु आप उपदेश करने लगा, तो लगभग तीस वर्ष की आयु का था और (जैसा समझा जाता था) यूसुफ का पुत्र था; और वह एली का,

24 और वह मत्तात का, और वह लेवी का, और वह मलकी का, और वह यन्ना का, और वह यूसुफ का,

25 और वह मत्तित्याह का, और वह आमोस का, और वह नहूम का, और वह असल्याह का, और वह नग्‍गई का,

26 और वह मात का, और वह मत्तित्याह का, और वह शिमी का, और वह योसेख का, और वह योदाह का,

27 और वह यूहन्ना का, और वह रेसा का, और वह जरुब्बाबेल का, और वह शालतीएल का, और वह नेरी का, (एज्रा 3:2, नहे. 12:1)

28 और वह मलकी का, और वह अद्दी का, और वह कोसाम का, और वह एल्‍मदाम का, और वह एर का,

29 और वह येशू का, और वह एलीएजेर का, और वह योरीम का, और वह मत्तात का, और वह लेवी का,

30 और वह शमौन का, और वह यहूदा का, और वह यूसुफ का, और वह योनान का, और वह एलयाकीम का,

31 और वह मलेआह का, और वह मिन्नाह का, और वह मत्तता का, और वह नातान का, और वह दाऊद का, (2 शमू. 5:14)

32 और वह यिशै का, और वह ओबेद का, और वह बोअज का, और वह सलमोन का, और वह नहशोन का, (रूत 4:20-22)

33 और वह अम्मीनादाब का, और वह अरनी का, और वह हेस्रोन का, और वह पेरेस का, और वह यहूदा का, (1 इति. 2:1-14)

34 और वह याकूब का, और वह इसहाक का, और वह अब्राहम का, और वह तेरह का, और वह नाहोर का, (उत्प. 21:3, उत्प. 25:26, 1 इति. 1:28,34)

35 और वह सरूग का, और वह रऊ का, और वह पेलेग का, और वह एबेर का, और वह शिलह का,

36 और वह केनान का, वह अरफक्षद का, और वह शेम का, वह नूह का, वह लेमेक का, (उत्प. 11:10-26, 1 इति. 1:24-27)

37 और वह मथूशिलह का, और वह हनोक का, और वह यिरिद का, और वह महललेल का, और वह केनान का,

38 और वह एनोश का, और वह शेत का, और वह आदम का, और वह परमेश्वर का पुत्र था। (उत्प. 4:25-5:32)

यीशु की परीक्षा

4  1 फिर यीशु पवित्र आत्मा से भरा हुआ, यरदन से लौटा; और आत्मा की अगुआई से जंगल में फिरता रहा;

2 और चालीस दिन तक शैतान उसकी परीक्षा करता रहा[fn]। उन दिनों में उसने कुछ न खाया और जब वे दिन पूरे हो गए, तो उसे भूख लगी।

3 और शैतान ने उससे कहा, “यदि तू परमेश्वर का पुत्र है, तो इस पत्थर से कह, कि रोटी बन जाए।”

4 यीशु ने उसे उत्तर दिया, “लिखा है: ‘मनुष्य केवल रोटी से जीवित न रहेगा।’” (व्यव. 8:3)

5 तब शैतान उसे ले गया और उसको पल भर में जगत के सारे राज्य दिखाए।

6 और उससे कहा, “मैं यह सब अधिकार, और इनका वैभव तुझे दूँगा, क्योंकि वह मुझे सौंपा गया है, और जिसे चाहता हूँ, उसे दे सकता हूँ।

7 इसलिए, यदि तू मुझे प्रणाम करे, तो यह सब तेरा हो जाएगा।”

8 यीशु ने उसे उत्तर दिया, “लिखा है: ‘तू प्रभु अपने परमेश्वर को प्रणाम कर; और केवल उसी की उपासना कर।’” (व्यव. 6:13,14)

9 तब उसने उसे यरूशलेम में ले जाकर मन्दिर के कंगूरे पर खड़ा किया, और उससे कहा, “यदि तू परमेश्वर का पुत्र है, तो अपने आपको यहाँ से नीचे गिरा दे।

10 क्योंकि लिखा है, ‘वह तेरे विषय में अपने स्वर्गदूतों को आज्ञा देगा, कि वे तेरी रक्षा करें’

11 और ‘वे तुझे हाथों हाथ उठा लेंगे ऐसा न हो कि तेरे पाँव में पत्थर से ठेस लगे।’” (भज. 91:11,12)

12 यीशु ने उसको उत्तर दिया, “यह भी कहा गया है: ‘तू प्रभु अपने परमेश्वर की परीक्षा न करना।’” (व्यव. 6:16)

13 जब शैतान सब परीक्षा कर चुका, तब कुछ समय के लिये उसके पास से चला गया[fn]

गलील में सेवाकार्य

14 फिर यीशु पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से भरा हुआ, गलील को लौटा, और उसकी चर्चा आस-पास के सारे देश में फैल गई।

15 और वह उन ही आराधनालयों में उपदेश करता रहा, और सब उसकी बड़ाई करते थे।

नासरत में यीशु अस्वीकृत

16 और वह नासरत में आया; जहाँ उसका पालन-पोषण हुआ था; और अपनी रीति के अनुसार सब्त के दिन आराधनालय में जाकर पढ़ने के लिये खड़ा हुआ।

17 यशायाह भविष्यद्वक्ता की पुस्तक[fn] उसे दी गई, और उसने पुस्तक खोलकर, वह जगह निकाली जहाँ यह लिखा था:

18 “प्रभु का आत्मा मुझ पर है,

इसलिए कि उसने कंगालों को सुसमाचार

सुनाने के लिये मेरा अभिषेक किया है,

और मुझे इसलिए भेजा है, कि बन्दियों को छुटकारे का

और अंधों को दृष्टि पाने का सुसमाचार प्रचार करूँ और

कुचले हुओं को छुड़ाऊँ, (यशा. 58:6, यशा. 61:1,2)

19 और \+wjप्रभु के प्रसन्न रहने के वर्ष[fn] \+wj* का प्रचार करूँ।”

20 तब उसने पुस्तक बन्द करके सेवक के हाथ में दे दी, और बैठ गया: और आराधनालय के सब लोगों की आँखें उस पर लगी थी।

21 तब वह उनसे कहने लगा, “आज ही यह लेख तुम्हारे सामने पूरा हुआ है।”

22 और सब ने उसे सराहा, और जो अनुग्रह की बातें उसके मुँह से निकलती थीं, उनसे अचम्भित हुए; और कहने लगे, “क्या यह यूसुफ का पुत्र नहीं?” (लूका 2:42, भज. 45:2)

23 उसने उनसे कहा, “तुम मुझ पर यह कहावत अवश्य कहोगे, ‘कि हे वैद्य, अपने आपको अच्छा कर! जो कुछ हमने सुना है कि कफरनहूम में तूने किया है उसे यहाँ अपने देश में भी कर।’”

24 और उसने कहा, “मैं तुम से सच कहता हूँ, कोई भविष्यद्वक्ता अपने देश में मान-सम्मान नहीं पाता।

25 मैं तुम से सच कहता हूँ, कि एलिय्याह के दिनों में जब साढ़े तीन वर्ष तक आकाश बन्द रहा, यहाँ तक कि सारे देश में बड़ा आकाल पड़ा, तो इस्राएल में बहुत सी विधवाएँ थीं। (1 राजा. 17:1, 1 राजा. 18:1)

26 पर एलिय्याह को उनमें से किसी के पास नहीं भेजा गया, केवल सीदोन के सारफत में एक विधवा के पास। (1 राजा. 17:9)

27 और एलीशा भविष्यद्वक्ता के समय इस्राएल में बहुत से कोढ़ी थे, पर सीरिया वासी नामान को छोड़ उनमें से कोई शुद्ध नहीं किया गया।” (2 राजा. 5:1-14)

28 ये बातें सुनते ही जितने आराधनालय में थे, सब क्रोध से भर गए।

29 और उठकर उसे नगर से बाहर निकाला, और जिस पहाड़ पर उनका नगर बसा हुआ था, उसकी चोटी पर ले चले, कि उसे वहाँ से नीचे गिरा दें।

30 पर वह उनके बीच में से निकलकर चला गया।

अशुद्ध आत्मा को बाहर निकालना

31 फिर वह गलील के कफरनहूम नगर में गया, और सब्त के दिन लोगों को उपदेश दे रहा था।

32 वे उसके उपदेश से चकित हो गए क्योंकि उसका वचन अधिकार सहित था।

33 आराधनालय में एक मनुष्य था, जिसमें अशुद्ध आत्मा थी।

34 वह ऊँचे शब्द से चिल्ला उठा, “हे यीशु नासरी, हमें तुझ से क्या काम? क्या तू हमें नाश करने आया है? मैं तुझे जानता हूँ तू कौन है? तू परमेश्वर का पवित्र जन है!”

35 यीशु ने उसे डाँटकर कहा, “चुप रह और उसमें से निकल जा!” तब दुष्टात्मा उसे बीच में पटककर बिना हानि पहुँचाए उसमें से निकल गई।

36 इस पर सब को अचम्भा हुआ, और वे आपस में बातें करके कहने लगे, “यह कैसा वचन है? कि वह अधिकार और सामर्थ्य के साथ अशुद्ध आत्माओं को आज्ञा देता है, और वे निकल जाती हैं।”

37 अतः चारों ओर हर जगह उसकी चर्चा होने लगी।

पतरस की सास और अन्य लोगों को चंगा करना

38 वह आराधनालय में से उठकर शमौन के घर में गया और शमौन की सास को तेज बुखार था, और उन्होंने उसके लिये उससे विनती की।

39 उसने उसके निकट खड़े होकर ज्वर को डाँटा और ज्वर उतर गया और वह तुरन्त उठकर उनकी सेवा-टहल करने लगी।

40 सूरज डूबते समय जिन-जिनके यहाँ लोग नाना प्रकार की बीमारियों में पड़े हुए थे, वे सब उन्हें उसके पास ले आएँ, और उसने एक-एक पर हाथ रखकर उन्हें चंगा किया।

41 और दुष्टात्मा चिल्लाती और यह कहती हुई, “तू परमेश्वर का पुत्र है,” बहुतों में से निकल गई पर वह उन्हें डाँटता और बोलने नहीं देता था, क्योंकि वे जानती थी, कि यह मसीह है।

गलील में प्रचार

42 जब दिन हुआ तो वह निकलकर एक एकांत स्थान में गया, और बड़ी भीड़ उसे ढूँढ़ती हुई उसके पास आई, और उसे रोकने लगी, कि हमारे पास से न जा।

43 परन्तु उसने उनसे कहा, “मुझे और नगरों में भी परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाना अवश्य है, क्योंकि मैं इसलिए भेजा गया हूँ।”

44 और वह गलील के आराधनालयों में प्रचार करता रहा।

यीशु का प्रथम चेला

5  1 जब भीड़ उस पर गिरी पड़ती थी, और परमेश्वर का वचन सुनती थी, और वह गन्नेसरत की झील[fn] के किनारे पर खड़ा था, तो ऐसा हुआ।

2 कि उसने झील के किनारे दो नावें लगी हुई देखीं, और मछुए उन पर से उतरकर जाल धो रहे थे।

3 उन नावों में से एक पर, जो शमौन की थी, चढ़कर, उसने उससे विनती की, कि किनारे से थोड़ा हटा ले चले, तब वह बैठकर लोगों को नाव पर से उपदेश देने लगा।

4 जब वह बातें कर चुका, तो शमौन से कहा, “गहरे में ले चल, और मछलियाँ पकड़ने के लिये अपने जाल डालो।”

5 शमौन ने उसको उत्तर दिया, “हे स्वामी, हमने सारी रात मेहनत की और कुछ न पकड़ा; तो भी तेरे कहने से जाल डालूँगा।”

6 जब उन्होंने ऐसा किया, तो बहुत मछलियाँ घेर लाए, और उनके जाल फटने लगे।

7 इस पर उन्होंने अपने साथियों को जो दूसरी नाव पर थे, संकेत किया, कि आकर हमारी सहायता करो: और उन्होंने आकर, दोनों नाव यहाँ तक भर लीं कि वे डूबने लगीं।

8 यह देखकर शमौन पतरस यीशु के पाँवों पर गिरा, और कहा, “हे प्रभु, मेरे पास से जा, क्योंकि मैं पापी मनुष्य हूँ!”

9 क्योंकि इतनी मछलियों के पकड़े जाने से उसे और उसके साथियों को बहुत अचम्भा हुआ;

10 और वैसे ही जब्दी के पुत्र याकूब और यूहन्ना को भी, जो शमौन के सहभागी थे, अचम्भा हुआ तब यीशु ने शमौन से कहा, “मत डर, अब से तू मनुष्यों को जीविता पकड़ा करेगा।”

11 और वे नावों को किनारे पर ले आए और सब कुछ छोड़कर उसके पीछे हो लिए।

कोढ़ी का शुद्ध किया जाना

12 जब वह किसी नगर में था, तो वहाँ कोढ़ से भरा हुआ एक मनुष्य आया, और वह यीशु को देखकर मुँह के बल गिरा, और विनती की, “हे प्रभु यदि तू चाहे तो मुझे शुद्ध कर सकता है।”

13 उसने हाथ बढ़ाकर उसे छुआ और कहा, “मैं चाहता हूँ, तू शुद्ध हो जा।” और उसका कोढ़ तुरन्त जाता रहा।

14 तब उसने उसे चिताया, “किसी से न कह, परन्तु जा के अपने आपको याजक को दिखा, और अपने शुद्ध होने के विषय में जो कुछ मूसा ने चढ़ावा ठहराया है उसे चढ़ा कि उन पर गवाही हो।” (लैव्य. 14:2-32)

15 परन्तु उसकी चर्चा और भी फैलती गई, और बड़ी भीड़ उसकी सुनने के लिये और अपनी बीमारियों से चंगे होने के लिये इकट्ठी हुई।

16 परन्तु वह निर्जन स्थानों में अलग जाकर प्रार्थना किया करता था।

यीशु द्वारा लकवा के रोगी को चंगा करना

17 और एक दिन ऐसा हुआ कि वह उपदेश दे रहा था, और फरीसी और व्यवस्थापक वहाँ बैठे हुए थे, जो गलील और यहूदिया के हर एक गाँव से, और यरूशलेम से आए थे; और चंगा करने के लिये प्रभु की सामर्थ्य उसके साथ थी।

18 और देखो कई लोग एक मनुष्य को जो लकवे का रोगी था, खाट पर लाए, और वे उसे भीतर ले जाने और यीशु के सामने रखने का उपाय ढूँढ़ रहे थे।

19 और जब भीड़ के कारण उसे भीतर न ले जा सके तो उन्होंने छत पर चढ़कर और खपरैल हटाकर, उसे खाट समेत बीच में यीशु के सामने उतार दिया।

20 उसने उनका विश्वास देखकर उससे कहा, “हे मनुष्य, तेरे पाप क्षमा हुए।”

21 तब शास्त्री और फरीसी विवाद करने लगे, “यह कौन है, जो परमेश्वर की निन्दा करता है? परमेश्वर को छोड़ कौन पापों की क्षमा कर सकता है?”

22 यीशु ने उनके मन की बातें जानकर, उनसे कहा, “तुम अपने मनों में क्या विवाद कर रहे हो?

23 सहज क्या है? क्या यह कहना, कि ‘तेरे पाप क्षमा हुए,’ या यह कहना कि ‘उठ और चल फिर?’

24 परन्तु इसलिए कि तुम जानो कि मनुष्य के पुत्र को पृथ्वी पर पाप क्षमा करने का भी अधिकार है।” उसने उस लकवे के रोगी से कहा, “मैं तुझ से कहता हूँ, उठ और अपनी खाट उठाकर अपने घर चला जा।”

25 वह तुरन्त उनके सामने उठा, और जिस पर वह पड़ा था उसे उठाकर, परमेश्वर की बड़ाई करता हुआ अपने घर चला गया।

26 तब सब चकित हुए और परमेश्वर की बड़ाई करने लगे, और बहुत डरकर कहने लगे, “आज हमने अनोखी बातें देखी हैं।”

मत्ती का बुलाया जाना

27 और इसके बाद वह बाहर गया, और लेवी नाम एक चुंगी लेनेवाले को चुंगी की चौकी पर बैठे देखा, और उससे कहा, “मेरे पीछे हो ले।”

28 तब वह सब कुछ छोड़कर उठा, और उसके पीछे हो लिया।

पापियों के साथ खाना

29 और लेवी ने अपने घर में उसके लिये एक बड़ा भोज[fn] दिया; और चुंगी लेनेवालों की और अन्य लोगों की जो उसके साथ भोजन करने बैठे थे एक बड़ी भीड़ थी।

30 और फरीसी और उनके शास्त्री उसके चेलों से यह कहकर कुढ़कुढ़ाने लगे, “तुम चुंगी लेनेवालों और पापियों के साथ क्यों खाते-पीते हो?”

उपवास पर यीशु का मत

31 यीशु ने उनको उत्तर दिया, “वैद्य भले चंगों के लिये नहीं, परन्तु बीमारों के लिये अवश्य है।

32 मैं धर्मियों को नहीं, परन्तु पापियों को मन फिराने के लिये बुलाने आया हूँ।”

33 और उन्होंने उससे कहा, “यूहन्ना के चेले तो बराबर उपवास रखते और प्रार्थना किया करते हैं, और वैसे ही फरीसियों के भी, परन्तु तेरे चेले तो खाते-पीते हैं।”

34 यीशु ने उनसे कहा, “क्या तुम बारातियों से जब तक दूल्हा उनके साथ रहे, उपवास करवा सकते हो?

35 परन्तु वे दिन आएँगे, जिनमें दूल्हा उनसे अलग किया जाएगा, तब वे उन दिनों में उपवास करेंगे।”

36 उसने एक और दृष्टान्त[fn] भी उनसे कहा: “कोई मनुष्य नये वस्त्र में से फाड़कर पुराने वस्त्र में पैबन्द नहीं लगाता, नहीं तो नया फट जाएगा और वह पैबन्द पुराने में मेल भी नहीं खाएगा।

37 और कोई नया दाखरस पुरानी मशकों में नहीं भरता, नहीं तो नया दाखरस मशकों को फाड़कर बह जाएगा, और मशकें भी नाश हो जाएँगी।

38 परन्तु नया दाखरस नई मशकों में भरना चाहिये।

39 कोई मनुष्य पुराना दाखरस पीकर नया नहीं चाहता क्योंकि वह कहता है, कि पुराना ही अच्छा है।”

यीशु सब्त का प्रभु

6  1 फिर सब्त के दिन वह खेतों में से होकर जा रहा था, और उसके चेले बालें तोड़-तोड़कर, और हाथों से मल-मलकर[fn] खाते जाते थे। (व्यव. 23:25)

2 तब फरीसियों में से कुछ कहने लगे, “तुम वह काम क्यों करते हो जो सब्त के दिन करना उचित नहीं?”

3 यीशु ने उनको उत्तर दिया, “क्या तुम ने यह नहीं पढ़ा, कि दाऊद ने जब वह और उसके साथी भूखे थे तो क्या किया?

4 वह कैसे परमेश्वर के घर में गया, और भेंट की रोटियाँ लेकर खाई, जिन्हें खाना याजकों को छोड़ और किसी को उचित नहीं, और अपने साथियों को भी दी?” (लैव्य. 24:5-9, 1 शमू. 21:6)

5 और उसने उनसे कहा, “मनुष्य का पुत्र सब्त के दिन का भी प्रभु है।”

सब्त के दिन रोगी का अच्छा किया जाना

6 और ऐसा हुआ कि किसी और सब्त के दिन को वह आराधनालय में जाकर उपदेश करने लगा; और वहाँ एक मनुष्य था, जिसका दाहिना हाथ सूखा था।

7 शास्त्री और फरीसी उस पर दोष लगाने का अवसर पाने के लिये उसकी ताक में थे, कि देखें कि वह सब्त के दिन चंगा करता है कि नहीं।

8 परन्तु वह उनके विचार जानता था; इसलिए उसने सूखे हाथवाले मनुष्य से कहा, “उठ, बीच में खड़ा हो।” वह उठ खड़ा हुआ।

9 यीशु ने उनसे कहा, “मैं तुम से यह पूछता हूँ कि सब्त के दिन क्या उचित है, भला करना या बुरा करना; प्राण को बचाना या नाश करना?”

10 और उसने चारों ओर उन सभी को देखकर उस मनुष्य से कहा, “अपना हाथ बढ़ा।” उसने ऐसा ही किया, और उसका हाथ फिर चंगा हो गया।

11 परन्तु वे आपे से बाहर होकर आपस में विवाद करने लगे कि हम यीशु के साथ क्या करें?

बारह प्रेरित

12 और उन दिनों में वह पहाड़ पर प्रार्थना करने को निकला, और परमेश्वर से प्रार्थना करने में सारी रात बिताई।

13 जब दिन हुआ, तो उसने अपने चेलों को बुलाकर उनमें से बारह चुन लिए, और उनको प्रेरित कहा।

14 और वे ये हैं: शमौन जिसका नाम उसने पतरस भी रखा; और उसका भाई अन्द्रियास, और याकूब, और यूहन्ना, और फिलिप्पुस, और बरतुल्मै,

15 और मत्ती, और थोमा, और हलफईस का पुत्र याकूब, और शमौन जो जेलोतेस कहलाता है,

16 और याकूब का बेटा यहूदा, और यहूदा इस्करियोती, जो उसका पकड़वानेवाला बना।

यीशु का लोगों को उपदेश देना और चंगा करना

17 तब वह उनके साथ उतरकर चौरस जगह में खड़ा हुआ, और उसके चेलों की बड़ी भीड़, और सारे यहूदिया, और यरूशलेम, और सोर और सीदोन के समुद्र के किनारे से बहुत लोग,

18 जो उसकी सुनने और अपनी बीमारियों से चंगा होने के लिये उसके पास आए थे, वहाँ थे। और अशुद्ध आत्माओं के सताए हुए लोग भी अच्छे किए जाते थे।

19 और सब उसे छूना चाहते थे, क्योंकि उसमें से सामर्थ्य निकलकर सब को चंगा करती थी।

आशीष के वचन

20 तब उसने अपने चेलों की ओर देखकर कहा,

“धन्य हो तुम, जो दीन हो,

क्योंकि परमेश्वर का राज्य तुम्हारा है।

21 “धन्य हो तुम, जो अब भूखे हो;

क्योंकि तृप्त किए जाओगे।

“धन्य हो तुम, जो अब रोते हो,

क्योंकि हँसोगे। (मत्ती 5:4,5, भज. 126:5,6)

22 “धन्य हो तुम, जब मनुष्य के पुत्र के

कारण लोग तुम से बैर करेंगे,

और तुम्हें निकाल देंगे, और तुम्हारी निन्दा करेंगे,

और तुम्हारा नाम बुरा जानकर काट देंगे।

23 “उस दिन आनन्दित होकर उछलना, क्योंकि देखो, तुम्हारे लिये स्वर्ग में बड़ा प्रतिफल है। उनके पूर्वज भविष्यद्वक्ताओं के साथ भी वैसा ही किया करते थे।

शोक वचन

24 “परन्तु हाय तुम पर जो धनवान हो,

क्योंकि तुम अपनी शान्ति पा चुके।

25 “हाय तुम पर जो अब तृप्त हो,

क्योंकि भूखे होंगे।

“हाय, तुम पर; जो अब हँसते हो,

क्योंकि शोक करोगे और रोओगे।

26 “हाय, तुम पर जब सब मनुष्य तुम्हें भला कहें,

क्योंकि उनके पूर्वज झूठे भविष्यद्वक्ताओं के साथ भी ऐसा ही किया करते थे।

शत्रु से भी प्रेम करना

27 “परन्तु मैं तुम सुननेवालों से कहता हूँ, कि \+wjअपने शत्रुओं से प्रेम रखो; जो तुम से बैर करें, उनका भला करो[fn] \+wj*

28 जो तुम्हें श्राप दें, उनको आशीष दो; जो तुम्हारा अपमान करें, उनके लिये प्रार्थना करो।

29 जो तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे उसकी ओर दूसरा भी फेर दे; और जो तेरी दोहर छीन ले, उसको कुर्ता लेने से भी न रोक।

30 जो कोई तुझ से माँगे, उसे दे; और जो तेरी वस्तु छीन ले, उससे न माँग।

31 और जैसा तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें, तुम भी उनके साथ वैसा ही करो।

32 “यदि तुम अपने प्रेम रखनेवालों के साथ प्रेम रखो, तो तुम्हारी क्या बड़ाई? क्योंकि पापी भी अपने प्रेम रखनेवालों के साथ प्रेम रखते हैं।

33 और यदि तुम अपने भलाई करनेवालों ही के साथ भलाई करते हो, तो तुम्हारी क्या बड़ाई? क्योंकि पापी भी ऐसा ही करते हैं।

34 और यदि तुम उसे उधार दो, जिनसे फिर पाने की आशा रखते हो, तो तुम्हारी क्या बड़ाई? क्योंकि पापी पापियों को उधार देते हैं, कि उतना ही फिर पाएँ।

35 वरन् अपने शत्रुओं से प्रेम रखो, और भलाई करो, और फिर पाने की आस न रखकर उधार दो; और तुम्हारे लिये बड़ा फल होगा; और तुम परमप्रधान के सन्तान ठहरोगे, क्योंकि वह उन पर जो धन्यवाद नहीं करते और बुरों पर भी कृपालु है। (लैव्य. 25:35,36, मत्ती 5:44,45)

36 जैसा तुम्हारा पिता दयावन्त है, वैसे ही तुम भी दयावन्त बनो।

दोष मत लगाओ

37 “दोष मत लगाओ; तो तुम पर भी दोष नहीं लगाया जाएगा: दोषी न ठहराओ, तो तुम भी दोषी नहीं ठहराए जाओगे: क्षमा करो, तो तुम्हें भी क्षमा किया जाएगा।

38 दिया करो, तो तुम्हें भी दिया जाएगा: लोग पूरा नाप दबा-दबाकर और हिला-हिलाकर और उभरता हुआ तुम्हारी गोद में डालेंगे, क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिये भी नापा जाएगा।”

39 फिर उसने उनसे एक दृष्टान्त कहा: “क्या अंधा, अंधे को मार्ग बता सकता है? क्या दोनों गड्ढे में नहीं गिरेंगे?

40 चेला अपने गुरु से बड़ा नहीं, परन्तु जो कोई सिद्ध होगा, वह अपने गुरु के समान होगा।

41 तू अपने भाई की आँख के तिनके को क्यों देखता है, और अपनी ही आँख का लट्ठा तुझे नहीं सूझता?

42 और जब तू अपनी ही आँख का लट्ठा नहीं देखता, तो अपने भाई से कैसे कह सकता है, ‘हे भाई, ठहर जा तेरी आँख से तिनके को निकाल दूँ?’ हे \+wjकपटी,[fn] \+wj* पहले अपनी आँख से लट्ठा निकाल, तब जो तिनका तेरे भाई की आँख में है, भली भाँति देखकर निकाल सकेगा।

पेड़ की पहचान फल से

43 “कोई अच्छा पेड़ नहीं, जो निकम्मा फल लाए, और न तो कोई निकम्मा पेड़ है, जो अच्छा फल लाए।

44 हर एक पेड़ अपने फल से पहचाना जाता है; क्योंकि लोग झाड़ियों से अंजीर नहीं तोड़ते, और न झड़बेरी से अंगूर।

45 भला मनुष्य अपने मन के भले भण्डार से भली बातें निकालता है; और बुरा मनुष्य अपने मन के बुरे भण्डार से बुरी बातें निकालता है; क्योंकि जो मन में भरा है वही उसके मुँह पर आता है।

घर बनानेवाले दो प्रकार के मनुष्य

46 “जब तुम मेरा कहना नहीं मानते, तो क्यों मुझे ‘हे प्रभु, हे प्रभु,’ कहते हो? (मला. 1:6)

47 जो कोई मेरे पास आता है, और मेरी बातें सुनकर उन्हें मानता है, मैं तुम्हें बताता हूँ कि वह किसके समान है?

48 वह उस मनुष्य के समान है, जिसने घर बनाते समय भूमि गहरी खोदकर चट्टान में नींव डाली, और जब बाढ़ आई तो धारा उस घर पर लगी, परन्तु उसे हिला न सकी; क्योंकि वह पक्का बना था।

49 परन्तु जो सुनकर नहीं मानता, वह उस मनुष्य के समान है, जिसने मिट्टी पर बिना नींव का घर बनाया। जब उस पर धारा लगी, तो वह तुरन्त गिर पड़ा, और वह गिरकर सत्यानाश हो गया।”

सूबेदार के विश्वास पर यीशु का अचम्भित होना

7  1 जब वह लोगों को अपनी सारी बातें सुना चुका, तो कफरनहूम में आया।

2 और किसी सूबेदार का एक दास जो उसका प्रिय था, बीमारी से मरने पर था।

3 उसने यीशु की चर्चा सुनकर यहूदियों के कई प्राचीनों को उससे यह विनती करने को उसके पास भेजा, कि आकर मेरे दास को चंगा कर।

4 वे यीशु के पास आकर उससे बड़ी विनती करके कहने लगे, “वह इस योग्य है, कि तू उसके लिये यह करे,

5 क्योंकि वह हमारी जाति से प्रेम रखता है, और उसी ने हमारे आराधनालय को बनाया है।”

6 यीशु उनके साथ-साथ चला, पर जब वह घर से दूर न था, तो सूबेदार ने उसके पास कई मित्रों के द्वारा कहला भेजा, “हे प्रभु दुःख न उठा, क्योंकि मैं इस योग्य नहीं, कि तू मेरी छत के तले आए।

7 इसी कारण मैंने अपने आपको इस योग्य भी न समझा, कि तेरे पास आऊँ, पर वचन ही कह दे तो मेरा सेवक चंगा हो जाएगा।

8 मैं भी पराधीन मनुष्य हूँ; और सिपाही मेरे हाथ में हैं, और जब एक को कहता हूँ, ‘जा,’ तो वह जाता है, और दूसरे से कहता हूँ कि ‘आ,’ तो आता है; और अपने किसी दास को कि ‘यह कर,’ तो वह उसे करता है।”

9 यह सुनकर यीशु ने अचम्भा किया, और उसने मुँह फेरकर उस भीड़ से जो उसके पीछे आ रही थी कहा, “मैं तुम से कहता हूँ, कि मैंने इस्राएल में भी ऐसा विश्वास नहीं पाया।”

10 और भेजे हुए लोगों ने घर लौटकर, उस दास को चंगा पाया।

मृतक को जीवन-दान

11 थोड़े दिन के बाद वह नाईन[fn] नाम के एक नगर को गया, और उसके चेले, और बड़ी भीड़ उसके साथ जा रही थी।

12 जब वह नगर के फाटक के पास पहुँचा, तो देखो, लोग एक मुर्दे को बाहर लिए जा रहे थे; जो अपनी माँ का एकलौता पुत्र था, और वह विधवा थी: और नगर के बहुत से लोग उसके साथ थे।

13 उसे देखकर प्रभु को तरस आया, और उसने कहा, “मत रो।”

14 तब उसने पास आकर अर्थी को छुआ; और उठानेवाले ठहर गए, तब उसने कहा, “हे जवान, मैं तुझ से कहता हूँ, उठ!”

15 तब वह मुर्दा उठ बैठा, और बोलने लगा: और उसने उसे उसकी माँ को सौंप दिया।

16 इससे सब पर भय छा गया[fn]; और वे परमेश्वर की बड़ाई करके कहने लगे, “हमारे बीच में एक बड़ा भविष्यद्वक्ता उठा है, और परमेश्वर ने अपने लोगों पर कृपादृष्‍टि की है।”

17 और उसके विषय में यह बात सारे यहूदिया और आस-पास के सारे देश में फैल गई।

यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले का प्रश्न

18 और यूहन्ना को उसके चेलों ने इन सब बातों का समाचार दिया।

19 तब यूहन्ना ने अपने चेलों में से दो को बुलाकर प्रभु के पास यह पूछने के लिये भेजा, “क्या आनेवाला तू ही है, या हम किसी और दूसरे की प्रतीक्षा करे?”

20 उन्होंने उसके पास आकर कहा, “यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले ने हमें तेरे पास यह पूछने को भेजा है, कि क्या आनेवाला तू ही है, या हम दूसरे की प्रतीक्षा करे?”

21 उसी घड़ी उसने बहुतों को बीमारियों और पीड़ाओं, और दुष्टात्माओं से छुड़ाया; और बहुत से अंधों को आँखें दी।

22 और उसने उनसे कहा, “जो कुछ तुम ने देखा और सुना है, जाकर यूहन्ना से कह दो; कि अंधे देखते हैं, लँगड़े चलते-फिरते हैं, कोढ़ी शुद्ध किए जाते हैं, बहरे सुनते है, और मुर्दे जिलाए जाते है, और कंगालों को सुसमाचार सुनाया जाता है। (यशा. 35:5,6, यशा. 61:1)

23 धन्य है वह, जो मेरे कारण ठोकर न खाए।”

24 जब यूहन्ना के भेजे हुए लोग चल दिए, तो यीशु यूहन्ना के विषय में लोगों से कहने लगा, “तुम जंगल में क्या देखने गए थे? क्या हवा से हिलते हुए सरकण्डे को?

25 तो तुम फिर क्या देखने गए थे? क्या कोमल वस्त्र पहने हुए मनुष्य को? देखो, जो भड़कीला वस्त्र पहनते, और सुख-विलास से रहते हैं, वे राजभवनों में रहते हैं।

26 तो फिर क्या देखने गए थे? क्या किसी भविष्यद्वक्ता को? हाँ, मैं तुम से कहता हूँ, वरन् भविष्यद्वक्ता से भी बड़े को।

27 यह वही है, जिसके विषय में लिखा है:

‘देख, मैं अपने दूत को तेरे आगे-आगे भेजता हूँ,

जो तेरे आगे मार्ग सीधा करेगा।’ (मला. 3:1, यशा. 40:3)

28 मैं तुम से कहता हूँ, कि जो स्त्रियों से जन्मे हैं, उनमें से यूहन्ना से बड़ा कोई नहीं पर जो परमेश्वर के राज्य में छोटे से छोटा है, वह उससे भी बड़ा है।”

29 और सब साधारण लोगों ने सुनकर और चुंगी लेनेवालों ने भी यूहन्ना का बपतिस्मा लेकर परमेश्वर को सच्चा मान लिया।

30 पर फरीसियों और व्यवस्थापकों ने उससे बपतिस्मा न लेकर परमेश्वर की मनसा को अपने विषय में टाल दिया।

31 “अतः मैं इस युग के लोगों की उपमा किस से दूँ कि वे किसके समान हैं?

32 वे उन बालकों के समान हैं जो बाजार में बैठे हुए एक दूसरे से पुकारकर कहते हैं, ‘हमने तुम्हारे लिये बाँसुरी बजाई, और तुम न नाचे, हमने विलाप किया, और तुम न रोए!’

33 क्योंकि यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाला न रोटी खाता आया, न दाखरस पीता आया, और तुम कहते हो, उसमें दुष्टात्मा है।

34 मनुष्य का पुत्र खाता-पीता आया है; और तुम कहते हो, ‘देखो, पेटू और पियक्कड़ मनुष्य, चुंगी लेनेवालों का और पापियों का मित्र।’

35 पर ज्ञान अपनी सब सन्तानों से सच्चा ठहराया गया है।”

शमौन फरीसी के घर पापिन स्त्री को क्षमादान

36 फिर किसी फरीसी ने उससे विनती की, कि मेरे साथ भोजन कर; अतः वह उस फरीसी के घर में जाकर भोजन करने बैठा।

37 वहाँ उस नगर की एक पापिनी स्त्री यह जानकर कि वह फरीसी के घर में भोजन करने बैठा है, संगमरमर के पात्र में इत्र लाई।

38 और उसके पाँवों के पास, पीछे खड़ी होकर, रोती हुई, उसके पाँवों को आँसुओं से भिगाने और अपने सिर के बालों से पोंछने लगी और उसके पाँव बार-बार चूमकर उन पर इत्र मला।

39 यह देखकर, वह फरीसी जिसने उसे बुलाया था, अपने मन में सोचने लगा, “यदि यह भविष्यद्वक्ता होता तो जान जाता, कि यह जो उसे छू रही है, वह कौन और कैसी स्त्री है? क्योंकि वह तो पापिन है।”

40 यह सुन यीशु ने उसके उत्तर में कहा, “हे शमौन, मुझे तुझ से कुछ कहना है।” वह बोला, “हे गुरु, कह।”

41 “किसी महाजन के दो देनदार थे, एक पाँच सौ, और दूसरा पचास दीनार देनदार था।

42 जबकि उनके पास वापस लौटाने को कुछ न रहा, तो उसने दोनों को क्षमा कर दिया। अतः उनमें से कौन उससे अधिक प्रेम रखेगा?”

43 शमौन ने उत्तर दिया, “मेरी समझ में वह, जिसका उसने अधिक छोड़ दिया।” उसने उससे कहा, “तूने ठीक विचार किया है।”

44 और उस स्त्री की ओर फिरकर उसने शमौन से कहा, “क्या तू इस स्त्री को देखता है? मैं तेरे घर में आया परन्तु तूने मेरे पाँव धोने के लिये पानी न दिया, पर इसने मेरे पाँव आँसुओं से भिगाए, और अपने बालों से पोंछा।” (उत्प. 18:4)

45 तूने मुझे चूमा न दिया, पर जब से मैं आया हूँ तब से इसने मेरे पाँवों का चूमना न छोड़ा।

46 तूने मेरे सिर पर तेल नहीं मला; पर इसने मेरे पाँवों पर इत्र मला है। (भज. 23:5)

47 “इसलिए मैं तुझ से कहता हूँ; कि इसके पाप जो बहुत थे, क्षमा हुए, क्योंकि इसने बहुत प्रेम किया; पर जिसका थोड़ा क्षमा हुआ है, वह थोड़ा प्रेम करता है।”

48 और उसने स्त्री से कहा, “तेरे पाप क्षमा हुए।”

49 तब जो लोग उसके साथ भोजन करने बैठे थे, वे अपने-अपने मन में सोचने लगे, “यह कौन है जो पापों को भी क्षमा करता है?”

50 पर उसने स्त्री से कहा, “तेरे विश्वास ने तुझे बचा लिया है, कुशल से चली जा।”

यीशु की शिष्याएँ

8  1 इसके बाद वह नगर-नगर और गाँव-गाँव प्रचार करता हुआ, और परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाता हुआ, फिरने लगा, और वे बारह उसके साथ थे,

2 और कुछ स्त्रियाँ भी जो दुष्टात्माओं से और बीमारियों से छुड़ाई गई थीं, और वे यह हैं मरियम जो मगदलीनी कहलाती थी[fn], जिसमें से सात दुष्टात्माएँ निकली थीं,

3 और हेरोदेस के भण्डारी खुज़ा की पत्नी योअन्ना और सूसन्नाह और बहुत सी और स्त्रियाँ, ये तो अपनी सम्पत्ति से उसकी सेवा करती थीं।

बीज बोनेवाले का दृष्टान्त

4 जब बड़ी भीड़ इकट्ठी हुई, और नगर-नगर के लोग उसके पास चले आते थे, तो उसने दृष्टान्त में कहा:

5 “एक बोनेवाला बीज बोने निकला: बोते हुए कुछ मार्ग के किनारे गिरा, और रौंदा गया, और आकाश के पक्षियों ने उसे चुग लिया।

6 और कुछ चट्टान पर गिरा, और उपजा, परन्तु नमी न मिलने से सूख गया।

7 कुछ झाड़ियों के बीच में गिरा, और झाड़ियों ने साथ-साथ बढ़कर उसे दबा लिया।

8 “और कुछ अच्छी भूमि पर गिरा, और उगकर सौ गुणा फल लाया।” यह कहकर उसने ऊँचे शब्द से कहा, “जिसके सुनने के कान हों वह सुन लें।”

दृष्टान्तों का उद्देश्य

9 उसके चेलों ने उससे पूछा, “इस दृष्टान्त का अर्थ क्या है?”

10 उसने कहा, “तुम को परमेश्वर के राज्य के भेदों की समझ दी गई है, पर औरों को दृष्टान्तों में सुनाया जाता है, इसलिए कि

‘वे देखते हुए भी न देखें,

और सुनते हुए भी न समझें।’ (मत्ती 4:11, यशा. 6:9,10)

बीज बोनेवाले दृष्टान्त का अर्थ

11 “दृष्टान्त का अर्थ यह है: बीज तो परमेश्वर का वचन है।

12 मार्ग के किनारे के वे हैं, जिन्होंने सुना; तब शैतान आकर उनके मन में से वचन उठा ले जाता है, कि कहीं ऐसा न हो कि वे विश्वास करके उद्धार पाएँ।

13 चट्टान पर के वे हैं, कि जब सुनते हैं, तो आनन्द से वचन को ग्रहण तो करते हैं, परन्तु जड़ न पकड़ने से वे थोड़ी देर तक विश्वास रखते हैं, और परीक्षा के समय बहक जाते हैं।

14 जो झाड़ियों में गिरा, यह वे हैं, जो सुनते हैं, पर आगे चलकर चिन्ता और धन और जीवन के सुख-विलास में फँस जाते हैं, और उनका फल नहीं पकता।

15 पर अच्छी भूमि में के वे हैं, जो वचन सुनकर भले और उत्तम मन में सम्भाले रहते हैं, और धीरज से फल लाते हैं।

दीपक का दृष्टान्त

16 “कोई \+wjदिया जलाकर[fn] \+wj* बर्तन से नहीं ढाँकता, और न खाट के नीचे रखता है, परन्तु दीवट पर रखता है, कि भीतर आनेवाले प्रकाश पाएँ।

17 कुछ छिपा नहीं, जो प्रगट न हो; और न कुछ गुप्त है, जो जाना न जाए, और प्रगट न हो।

18 इसलिए सावधान रहो, कि तुम किस रीति से सुनते हो? क्योंकि जिसके पास है, उसे दिया जाएगा; और जिसके पास नहीं है, उससे वह भी ले लिया जाएगा, जिसे वह अपना समझता है।”

यीशु का सच्चा परिवार

19 उसकी माता और उसके भाई पास आए, पर भीड़ के कारण उससे भेंट न कर सके।

20 और उससे कहा गया, “तेरी माता और तेरे भाई बाहर खड़े हुए तुझ से मिलना चाहते हैं।”

21 उसने उसके उत्तर में उनसे कहा, “मेरी माता और मेरे भाई ये ही है, जो परमेश्वर का वचन सुनते और मानते हैं।”

आँधी और तूफान को शान्त करना

22 फिर एक दिन वह और उसके चेले नाव पर चढ़े, और उसने उनसे कहा, “आओ, झील के पार चलें।” अतः उन्होंने नाव खोल दी।

23 पर जब नाव चल रही थी, तो वह सो गया: और झील पर आँधी आई, और नाव पानी से भरने लगी और वे जोखिम में थे।

24 तब उन्होंने पास आकर उसे जगाया, और कहा, “स्वामी! स्वामी! हम नाश हुए जाते हैं।” तब उसने उठकर आँधी को और पानी की लहरों को डाँटा और वे थम गए, और शान्त हो गया।

25 और उसने उनसे कहा, “तुम्हारा विश्वास कहाँ था?” पर वे डर गए, और अचम्भित होकर आपस में कहने लगे, “यह कौन है, जो आँधी और पानी को भी आज्ञा देता है, और वे उसकी मानते हैं?”

दुष्टात्माओं का बाहर निकाला जाना

26 फिर वे गिरासेनियों के देश में पहुँचे, जो उस पार गलील के सामने है।

27 जब वह किनारे पर उतरा, तो उस नगर का एक मनुष्य उसे मिला, जिसमें दुष्टात्माएँ थीं। और बहुत दिनों से न कपड़े पहनता था और न घर में रहता था वरन् कब्रों में रहा करता था।

28 वह यीशु को देखकर चिल्लाया, और उसके सामने गिरकर ऊँचे शब्द से कहा, “हे परमप्रधान परमेश्वर के पुत्र यीशु! मुझे तुझ से क्या काम? मैं तुझ से विनती करता हूँ, मुझे पीड़ा न दे।”

29 क्योंकि वह उस अशुद्ध आत्मा को उस मनुष्य में से निकलने की आज्ञा दे रहा था, इसलिए कि वह उस पर बार-बार प्रबल होती थी। और यद्यपि लोग उसे जंजीरों और बेड़ियों से बाँधते थे, तो भी वह बन्धनों को तोड़ डालता था, और दुष्टात्मा उसे जंगल में भगाए फिरती थी।

30 यीशु ने उससे पूछा, “तेरा क्या नाम है?” उसने कहा, “सेना,” क्योंकि बहुत दुष्टात्माएँ उसमें समा गई थीं।

31 और उन्होंने उससे विनती की, “हमें अथाह गड्ढे में जाने की आज्ञा न दे।”

32 वहाँ पहाड़ पर सूअरों का एक बड़ा झुण्ड चर रहा था, अतः उन्होंने उससे विनती की, “हमें उनमें समाने दे।” अतः उसने उन्हें जाने दिया।

33 तब दुष्टात्माएँ उस मनुष्य से निकलकर सूअरों में समा गई और वह झुण्ड कड़ाड़े पर से झपटकर झील में जा गिरा और डूब मरा।

34 चरवाहे यह जो हुआ था देखकर भागे, और नगर में, और गाँवों में जाकर उसका समाचार कहा।

35 और लोग यह जो हुआ था उसको देखने को निकले, और यीशु के पास आकर जिस मनुष्य से दुष्टात्माएँ निकली थीं, उसे यीशु के पाँवों के पास कपड़े पहने और सचेत बैठे हुए पाकर डर गए।

36 और देखनेवालों ने उनको बताया, कि वह दुष्टात्मा का सताया हुआ मनुष्य किस प्रकार अच्छा हुआ।

37 तब गिरासेनियों के आस-पास के सब लोगों ने यीशु से विनती की, कि हमारे यहाँ से चला जा; क्योंकि उन पर बड़ा भय छा गया था। अतः वह नाव पर चढ़कर लौट गया।

38 जिस मनुष्य से दुष्टात्माएँ निकली थीं वह उससे विनती करने लगा, कि मुझे अपने साथ रहने दे, परन्तु यीशु ने उसे विदा करके कहा।

39 “अपने घर में लौट जा और लोगों से कह दे, कि परमेश्वर ने तेरे लिये कैसे बड़े-बड़े काम किए हैं।” वह जाकर सारे नगर में प्रचार करने लगा, कि यीशु ने मेरे लिये कैसे बड़े-बड़े काम किए।

रोगी स्त्री और मृत लड़की को जीवनदान

40 जब यीशु लौट रहा था, तो लोग उससे आनन्द के साथ मिले; क्योंकि वे सब उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

41 और देखो, याईर नाम एक मनुष्य जो आराधनालय का सरदार था, आया, और यीशु के पाँवों पर गिरकर उससे विनती करने लगा, “मेरे घर चल।”

42 क्योंकि उसके बारह वर्ष की एकलौती बेटी थी, और वह मरने पर थी। जब वह जा रहा था, तब लोग उस पर गिरे पड़ते थे।

43 और एक स्त्री ने जिसको बारह वर्ष से लहू बहने का रोग था, और जो अपनी सारी जीविका वैद्यों के पीछे व्यय कर चुकी थी और फिर भी किसी के हाथ से चंगी न हो सकी थी,

44 पीछे से आकर उसके वस्त्र के आँचल को छुआ, और तुरन्त उसका लहू बहना थम गया।

45 इस पर यीशु ने कहा, “मुझे किसने छुआ?” जब सब मुकरने लगे, तो पतरस और उसके साथियों ने कहा, “हे स्वामी, तुझे तो भीड़ दबा रही है और तुझ पर गिरी पड़ती है।”

46 परन्तु यीशु ने कहा, “किसी ने मुझे छुआ है क्योंकि मैंने जान लिया है कि मुझ में से सामर्थ्य निकली है।”

47 जब स्त्री ने देखा, कि मैं छिप नहीं सकती, तब काँपती हुई आई, और उसके पाँवों पर गिरकर सब लोगों के सामने बताया, कि मैंने किस कारण से तुझे छुआ, और कैसे तुरन्त चंगी हो गई।

48 उसने उससे कहा, “पुत्री तेरे विश्वास ने तुझे चंगा किया है, कुशल से चली जा।”

49 वह यह कह ही रहा था, कि किसी ने आराधनालय के सरदार के यहाँ से आकर कहा, “तेरी बेटी मर गई: गुरु को दुःख न दे।”

50 यीशु ने सुनकर उसे उत्तर दिया, “मत डर; केवल विश्वास रख; तो वह \+wjबच जाएगी।”[fn] \+wj*

51 घर में आकर उसने पतरस, और यूहन्ना, और याकूब, और लड़की के माता-पिता को छोड़ और किसी को अपने साथ भीतर आने न दिया।

52 और सब उसके लिये रो पीट रहे थे, परन्तु उसने कहा, “रोओ मत; वह मरी नहीं परन्तु सो रही है।”

53 वे यह जानकर, कि मर गई है, उसकी हँसी करने लगे।

54 परन्तु उसने उसका हाथ पकड़ा, और पुकारकर कहा, “हे लड़की उठ!”

55 तब उसके प्राण लौट आए और वह तुरन्त उठी; फिर उसने आज्ञा दी, कि उसे कुछ खाने को दिया जाए।

56 उसके माता-पिता चकित हुए, परन्तु उसने उन्हें चेतावनी दी, कि यह जो हुआ है, किसी से न कहना।

बारह शिष्यों को भेजा जाना

9  1 फिर उसने बारहों को बुलाकर उन्हें सब दुष्टात्माओं और बीमारियों को दूर करने की सामर्थ्य और अधिकार दिया।

2 और उन्हें परमेश्वर के राज्य का प्रचार करने, और बीमारों को अच्छा करने के लिये भेजा।

3 और उसने उनसे कहा, “मार्ग के लिये कुछ न लेना: न तो लाठी, न झोली, न रोटी, न रुपये और न दो-दो कुर्ते।

4 और जिस किसी घर में तुम उतरो, वहीं रहो; और वहीं से विदा हो।

5 जो कोई तुम्हें ग्रहण न करेगा उस नगर से निकलते हुए अपने पाँवों की धूल झाड़ डालो, कि उन पर गवाही हो।”

6 अतः वे निकलकर गाँव-गाँव सुसमाचार सुनाते, और हर कहीं लोगों को चंगा करते हुए फिरते रहे।

हेरोदेस का घबराना

7 और देश की चौथाई का राजा हेरोदेस यह सब सुनकर घबरा गया, क्योंकि कितनों ने कहा, कि यूहन्ना मरे हुओं में से जी उठा है।

8 और कितनों ने यह, कि एलिय्याह दिखाई दिया है: औरों ने यह, कि पुराने भविष्यद्वक्ताओं में से कोई जी उठा है।

9 परन्तु हेरोदेस ने कहा, “यूहन्ना का तो मैंने सिर कटवाया अब यह कौन है, जिसके विषय में ऐसी बातें सुनता हूँ?” और उसने उसे देखने की इच्छा की।

पाँच हजार लोगों को खिलाना

10 फिर प्रेरितों ने लौटकर जो कुछ उन्होंने किया था, उसको बता दिया, और वह उन्हें अलग करके बैतसैदा[fn] नामक एक नगर को ले गया।

11 यह जानकर भीड़ उसके पीछे हो ली, और वह आनन्द के साथ उनसे मिला, और उनसे परमेश्वर के राज्य की बातें करने लगा, और जो चंगे होना चाहते थे, उन्हें चंगा किया।

12 जब दिन ढलने लगा, तो बारहों ने आकर उससे कहा, “भीड़ को विदा कर, कि चारों ओर के गाँवों और बस्तियों में जाकर अपने लिए रहने को स्थान, और भोजन का उपाय करें, क्योंकि हम यहाँ सुनसान जगह में हैं।”

13 उसने उनसे कहा, “तुम ही उन्हें खाने को दो।” उन्होंने कहा, “हमारे पास पाँच रोटियाँ और दो मछली को छोड़ और कुछ नहीं; परन्तु हाँ, यदि हम जाकर इन सब लोगों के लिये भोजन मोल लें, तो हो सकता है।”

14 (क्योंकि वहाँ पर लगभग पाँच हजार पुरुष थे।) और उसने अपने चेलों से कहा, “उन्हें पचास-पचास करके पाँति में बैठा दो।”

15 उन्होंने ऐसा ही किया, और सब को बैठा दिया।

16 तब उसने वे पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ लीं, और स्वर्ग की और देखकर धन्यवाद किया, और तोड़-तोड़कर चेलों को देता गया कि लोगों को परोसें।

17 अतः सब खाकर तृप्त हुए, और बचे हुए टुकड़ों से बारह टोकरियाँ भरकर उठाई। (2 राजा. 4:44)

पतरस का यीशु को मसीह स्वीकारना

18 जब वह एकान्त में प्रार्थना कर रहा था, और चेले उसके साथ थे, तो उसने उनसे पूछा, “लोग मुझे क्या कहते हैं?”

19 उन्होंने उत्तर दिया, “यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाला, और कोई-कोई एलिय्याह, और कोई यह कि पुराने भविष्यद्वक्ताओं में से कोई जी उठा है।”

20 उसने उनसे पूछा, “परन्तु तुम मुझे क्या कहते हो?” पतरस ने उत्तर दिया, “ परमेश्वर का मसीह[fn]।”

21 तब उसने उन्हें चेतावनी देकर कहा, “यह किसी से न कहना।”

यीशु द्वारा अपनी मृत्यु की भविष्यद्वाणी

22 और उसने कहा, “मनुष्य के पुत्र के लिये अवश्य है, कि वह बहुत दुःख उठाए, और पुरनिए और प्रधान याजक और शास्त्री उसे तुच्छ समझकर मार डालें, और वह तीसरे दिन जी उठे।”

यीशु के पीछे चलने का मतलब

23 उसने सबसे कहा, “यदि कोई मेरे पीछे आना चाहे, तो अपने आप से इन्कार करे और प्रति-दिन अपना क्रूस उठाए हुए मेरे पीछे हो ले।

24 क्योंकि जो कोई अपना प्राण बचाना चाहेगा वह उसे खोएगा, परन्तु जो कोई मेरे लिये अपना प्राण खोएगा वही उसे बचाएगा।

25 यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे, और अपना प्राण खो दे, या उसकी हानि उठाए, तो उसे क्या लाभ होगा?

26 जो कोई मुझसे और मेरी बातों से लजाएगा; मनुष्य का पुत्र भी जब अपनी, और अपने पिता की, और पवित्र स्वर्गदूतों की, महिमा सहित आएगा, तो उससे लजाएगा।

27 मैं तुम से सच कहता हूँ, कि जो यहाँ खड़े हैं, उनमें से कोई-कोई ऐसे हैं कि जब तक परमेश्वर का राज्य न देख लें, तब तक मृत्यु का स्वाद न चखेंगे।”

मूसा और एलिय्याह के साथ यीशु

28 इन बातों के कोई आठ दिन बाद वह पतरस, और यूहन्ना, और याकूब को साथ लेकर प्रार्थना करने के लिये पहाड़ पर गया।

29 जब वह प्रार्थना कर ही रहा था, तो उसके चेहरे का रूप बदल गया, और उसका वस्त्र श्वेत होकर चमकने लगा।

30 तब, मूसा और एलिय्याह[fn], ये दो पुरुष उसके साथ बातें कर रहे थे।

31 ये महिमा सहित दिखाई दिए, और उसके मरने की चर्चा कर रहे थे, जो यरूशलेम में होनेवाला था।

32 पतरस और उसके साथी नींद से भरे थे, और जब अच्छी तरह सचेत हुए, तो उसकी महिमा; और उन दो पुरुषों को, जो उसके साथ खड़े थे, देखा।

33 जब वे उसके पास से जाने लगे, तो पतरस ने यीशु से कहा, “हे स्वामी, हमारा यहाँ रहना भला है: अतः हम तीन मण्डप बनाएँ, एक तेरे लिये, एक मूसा के लिये, और एक एलिय्याह के लिये।” वह जानता न था, कि क्या कह रहा है।

34 वह यह कह ही रहा था, कि एक बादल ने आकर उन्हें छा लिया, और जब वे उस बादल से घिरने लगे, तो डर गए।

35 और उस बादल में से यह शब्द निकला, “यह मेरा पुत्र और मेरा चुना हुआ है, इसकी सुनो।” (यशा. 42:1)

36 यह शब्द होते ही यीशु अकेला पाया गया; और वे चुप रहे, और जो कुछ देखा था, उसकी कोई बात उन दिनों में किसी से न कही।

लड़के को दुष्टात्मा से छुटकारा

37 और दूसरे दिन जब वे पहाड़ से उतरे, तो एक बड़ी भीड़ उससे आ मिली।

38 तब, भीड़ में से एक मनुष्य ने चिल्लाकर कहा, “हे गुरु, मैं तुझ से विनती करता हूँ, कि मेरे पुत्र पर कृपादृष्‍टि कर; क्योंकि वह मेरा एकलौता है।

39 और देख, एक दुष्टात्मा उसे पकड़ती है, और वह एकाएक चिल्ला उठता है; और वह उसे ऐसा मरोड़ती है, कि वह मुँह में फेन भर लाता है; और उसे कुचलकर कठिनाई से छोड़ती है।

40 और मैंने तेरे चेलों से विनती की, कि उसे निकालें; परन्तु वे न निकाल सके।”

41 यीशु ने उत्तर दिया, “हे अविश्वासी और हठीले लोगों, मैं कब तक तुम्हारे साथ रहूँगा, और तुम्हारी सहूँगा? अपने पुत्र को यहाँ ले आ।”

42 वह आ ही रहा था कि दुष्टात्मा ने उसे पटककर मरोड़ा, परन्तु यीशु ने अशुद्ध आत्मा को डाँटा और लड़के को अच्छा करके उसके पिता को सौंप दिया।

43 तब सब लोग परमेश्वर के महासामर्थ्य से चकित हुए। परन्तु जब सब लोग उन सब कामों से जो वह करता था, अचम्भा कर रहे थे, तो उसने अपने चेलों से कहा,

44 “ये बातें तुम्हारे कानों में पड़ी रहें, क्योंकि मनुष्य का पुत्र मनुष्यों के हाथ में पकड़वाया जाने को है।”

45 परन्तु वे इस बात को न समझते थे, और यह उनसे छिपी रही; कि वे उसे जानने न पाएँ, और वे इस बात के विषय में उससे पूछने से डरते थे।

सबसे बड़ा कौन?

46 फिर उनमें यह विवाद होने लगा, कि हम में से बड़ा कौन है?

47 पर यीशु ने उनके मन का विचार जान लिया, और एक बालक को लेकर अपने पास खड़ा किया,

48 और उनसे कहा, “जो कोई मेरे नाम से इस बालक को ग्रहण करता है, वह मुझे ग्रहण करता है; और जो कोई मुझे ग्रहण करता है, वह मेरे भेजनेवाले को ग्रहण करता है, क्योंकि जो तुम में सबसे छोटे से छोटा है, वही बड़ा है।”

जो विरोध में नहीं, वह पक्ष में है

49 तब यूहन्ना ने कहा, “हे स्वामी, हमने एक मनुष्य को तेरे नाम से दुष्टात्माओं को निकालते देखा, और हमने उसे मना किया, क्योंकि वह हमारे साथ होकर तेरे पीछे नहीं हो लेता।”

50 यीशु ने उससे कहा, “उसे मना मत करो; क्योंकि जो तुम्हारे विरोध में नहीं, वह तुम्हारी ओर है।”

यरूशलेम की यात्रा

51 जब उसके ऊपर उठाए जाने के दिन पूरे होने पर थे, तो उसने यरूशलेम को जाने का विचार दृढ़ किया।

52 और उसने अपने आगे दूत भेजे: वे सामरियों के एक गाँव में गए, कि उसके लिये जगह तैयार करें।

53 परन्तु उन लोगों ने उसे उतरने न दिया[fn], क्योंकि वह यरूशलेम को जा रहा था।

54 यह देखकर उसके चेले याकूब और यूहन्ना ने कहा, “हे प्रभु; क्या तू चाहता है, कि हम आज्ञा दें, कि आकाश से आग गिरकर उन्हें भस्म कर दे?”

55 परन्तु उसने फिरकर उन्हें डाँटा [और कहा, “तुम नहीं जानते कि तुम कैसी आत्मा के हो। क्योंकि मनुष्य का पुत्र लोगों के प्राणों को नाश करने नहीं वरन् बचाने के लिये आया है।”]

56 और वे किसी और गाँव में चले गए।

यीशु के पीछे चलने का मतलब

57 जब वे मार्ग में चले जाते थे, तो किसी ने उससे कहा, “जहाँ-जहाँ तू जाएगा, मैं तेरे पीछे हो लूँगा।”

58 यीशु ने उससे कहा, “लोमड़ियों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं, पर मनुष्य के पुत्र को सिर रखने की भी जगह नहीं।”

59 उसने दूसरे से कहा, “मेरे पीछे हो ले।” उसने कहा, “हे प्रभु, मुझे पहले जाने दे कि अपने पिता को गाड़ दूँ।”

60 उसने उससे कहा, “मरे हुओं को अपने मुर्दे गाड़ने दे, पर तू जाकर परमेश्वर के राज्य की कथा सुना।”

61 एक और ने भी कहा, “हे प्रभु, मैं तेरे पीछे हो लूँगा; पर पहले मुझे जाने दे कि अपने घर के लोगों से विदा हो आऊँ।” (1 राजा. 19:20)

62 यीशु ने उससे कहा, “जो कोई अपना हाथ हल पर रखकर पीछे देखता है, वह परमेश्वर के राज्य के योग्य नहीं।”

सत्तर चेलों का भेजा जाना

10  1 और इन बातों के बाद प्रभु ने सत्तर और मनुष्य नियुक्त किए और जिस-जिस नगर और जगह को वह आप जाने पर था, वहाँ उन्हें दो-दो करके अपने आगे भेजा।

2 और उसने उनसे कहा, “पके खेत बहुत हैं; परन्तु मजदूर थोड़े हैं इसलिए खेत के स्वामी से विनती करो, कि वह अपने खेत काटने को मजदूर भेज दे।

3 जाओ; देखों मैं तुम्हें भेड़ों के समान भेड़ियों के बीच में भेजता हूँ।

4 इसलिए न बटुआ, न झोली, न जूते लो; और न मार्ग में किसी को नमस्कार करो। (मत्ती 10:9, 2 राजा. 4:29)

5 जिस किसी घर में जाओ, पहले कहो, ‘इस घर पर कल्याण हो।’

6 यदि वहाँ कोई कल्याण के योग्य होगा; तो तुम्हारा कल्याण उस पर ठहरेगा, नहीं तो तुम्हारे पास लौट आएगा।

7 उसी घर में रहो, और जो कुछ उनसे मिले, वही खाओ-पीओ, क्योंकि मजदूर को अपनी मजदूरी मिलनी चाहिए; घर-घर न फिरना।

8 और जिस नगर में जाओ, और वहाँ के लोग तुम्हें उतारें, तो जो कुछ तुम्हारे सामने रखा जाए वही खाओ।

9 वहाँ के बीमारों को चंगा करो: और उनसे कहो, ‘परमेश्वर का राज्य तुम्हारे निकट आ पहुँचा है।’

10 परन्तु जिस नगर में जाओ, और वहाँ के लोग तुम्हें ग्रहण न करें, तो उसके बाजारों में जाकर कहो,

11 ‘तुम्हारे नगर की धूल भी, जो हमारे पाँवों में लगी है, हम तुम्हारे सामने झाड़ देते हैं, फिर भी यह जान लो, कि परमेश्वर का राज्य तुम्हारे निकट आ पहुँचा है।’

12 मैं तुम से कहता हूँ, कि उस दिन उस नगर की दशा से सदोम की दशा अधिक सहने योग्य होगी। (उत्प. 19:24,25)

मन नहीं फिराने वालों पर हाय

13 “हाय खुराजीन! हाय बैतसैदा! जो सामर्थ्य के काम तुम में किए गए, यदि वे सोर और सीदोन में किए जाते, तो टाट ओढ़कर और राख में बैठकर वे कब के मन फिराते।

14 परन्तु न्याय के दिन तुम्हारी दशा से सोर और सीदोन की दशा अधिक सहने योग्य होगी। (योए. 3:4-8, जक. 9:2-4)

15 और हे कफरनहूम, क्या तू स्वर्ग तक ऊँचा किया जाएगा? तू तो अधोलोक तक नीचे जाएगा। (यशा. 14:13,15)

16 “जो तुम्हारी सुनता है, वह मेरी सुनता है, और जो तुम्हें तुच्छ जानता है, वह मुझे तुच्छ जानता है; और जो मुझे तुच्छ जानता है, वह मेरे भेजनेवाले को तुच्छ जानता है।”

सत्तर चेलों का वापस आना

17 वे सत्तर आनन्द से फिर आकर कहने लगे, “हे प्रभु, तेरे नाम से दुष्टात्मा भी हमारे वश में है।”

18 उसने उनसे कहा, “मैं शैतान को बिजली के समान स्वर्ग से गिरा हुआ देख रहा था। (प्रका. 12:7-9, यशा. 14:12)

19 मैंने तुम्हें \+wjसाँपों और बिच्छुओं को रौंदने[fn] \+wj* का, और शत्रु की सारी सामर्थ्य पर अधिकार दिया है; और किसी वस्तु से तुम्हें कुछ हानि न होगी। (भज. 91:13)

20 तो भी इससे आनन्दित मत हो, कि आत्मा तुम्हारे वश में हैं, परन्तु इससे आनन्दित हो कि तुम्हारे नाम स्वर्ग पर लिखे हैं।”

पुत्र द्वारा पिता को प्रगट करना

21 उसी घड़ी वह पवित्र आत्मा में होकर आनन्द से भर गया, और कहा, “हे पिता, स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु, मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ, कि तूने इन बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा रखा, और बालकों पर प्रगट किया, हाँ, हे पिता, क्योंकि तुझे यही अच्छा लगा।

22 मेरे पिता ने मुझे सब कुछ सौंप दिया है; और कोई नहीं जानता कि पुत्र कौन है, केवल पिता और पिता कौन है यह भी कोई नहीं जानता, केवल पुत्र के और वह जिस पर पुत्र उसे प्रकट करना चाहे।”

23 और चेलों की ओर मुड़कर अकेले में कहा, “धन्य हैं वे आँखें, जो ये बातें जो तुम देखते हो देखती हैं,

24 क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ, कि बहुत से भविष्यद्वक्ताओं और राजाओं ने चाहा, कि जो बातें तुम देखते हो देखें; पर न देखीं और जो बातें तुम सुनते हो सुनें, पर न सुनीं।”

एक अच्छे सामरी का दृष्टान्त

25 तब एक व्यवस्थापक उठा; और यह कहकर, उसकी परीक्षा करने लगा, “हे गुरु, अनन्त जीवन का वारिस होने के लिये मैं क्या करूँ?”

26 उसने उससे कहा, “व्यवस्था में क्या लिखा है? तू कैसे पढ़ता है?”

27 उसने उत्तर दिया, “तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी शक्ति और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख; और अपने पड़ोसी से अपने जैसा प्रेम रख।” (मत्ती 22:37-40, व्यव. 6:5, व्यव. 10:12, यहो. 22:5)

28 उसने उससे कहा, “तूने ठीक उत्तर दिया, यही कर तो तू जीवित रहेगा।” (लैव्य. 18:5)

29 परन्तु उसने अपने आपको धर्मी ठहराने[fn] की इच्छा से यीशु से पूछा, “तो मेरा पड़ोसी कौन है?”

30 यीशु ने उत्तर दिया “एक मनुष्य यरूशलेम से यरीहो को जा रहा था, कि डाकुओं ने घेरकर उसके कपड़े उतार लिए, और मार पीट कर उसे अधमरा छोड़कर चले गए।

31 और ऐसा हुआ कि उसी मार्ग से एक याजक जा रहा था, परन्तु उसे देखकर कतराकर चला गया।

32 इसी रीति से \+wjएक लेवी[fn] \+wj* उस जगह पर आया, वह भी उसे देखकर कतराकर चला गया।

33 परन्तु \+wjएक सामरी[fn] \+wj* यात्री वहाँ आ निकला, और उसे देखकर तरस खाया।

34 और उसके पास आकर और \+wjउसके घावों पर तेल और दाखरस डालकर[fn] \+wj* पट्टियाँ बाँधी, और अपनी सवारी पर चढ़ाकर सराय में ले गया, और उसकी सेवा टहल की।

35 दूसरे दिन उसने दो दीनार निकालकर सराय के मालिक को दिए, और कहा, ‘इसकी सेवा टहल करना, और जो कुछ तेरा और लगेगा, वह मैं लौटने पर तुझे दे दूँगा।’

36 अब तेरी समझ में जो डाकुओं में घिर गया था, इन तीनों में से उसका पड़ोसी कौन ठहरा?”

37 उसने कहा, “वही जिसने उस पर तरस खाया।” यीशु ने उससे कहा, “जा, तू भी ऐसा ही कर।”

मार्था और मरियम

38 फिर जब वे जा रहे थे, तो वह एक गाँव में गया, और मार्था नाम एक स्त्री ने उसे अपने घर में स्वागत किया।

39 और मरियम नामक उसकी एक बहन थी; वह प्रभु के पाँवों के पास बैठकर उसका वचन सुनती थी।

40 परन्तु मार्था सेवा करते-करते घबरा गई और उसके पास आकर कहने लगी, “हे प्रभु, क्या तुझे कुछ भी चिन्ता नहीं कि मेरी बहन ने मुझे सेवा करने के लिये अकेली ही छोड़ दिया है? इसलिए उससे कह, मेरी सहायता करे।”

41 प्रभु ने उसे उत्तर दिया, “मार्था, हे मार्था; तू बहुत बातों के लिये चिन्ता करती और घबराती है।

42 परन्तु एक बात अवश्य है, और उस उत्तम भाग को मरियम ने चुन लिया है: जो उससे छीना न जाएगा।”

प्रार्थना की शिक्षा

11  1 फिर वह किसी जगह प्रार्थना कर रहा था। और जब वह प्रार्थना कर चुका, तो उसके चेलों में से एक ने उससे कहा, “हे प्रभु, जैसे यूहन्ना ने अपने चेलों को प्रार्थना करना सिखाया वैसे ही हमें भी तू सीखा दे[fn]।”

2 उसने उनसे कहा, “जब तुम प्रार्थना करो, तो कहो:

‘हे पिता,

तेरा नाम पवित्र माना जाए, तेरा राज्य आए।

3 ‘हमारी दिन भर की रोटी हर दिन हमें दिया कर।

4 ‘और हमारे पापों को क्षमा कर,

क्योंकि \+wjहम भी अपने हर एक अपराधी को क्षमा करते हैं[fn] \+wj* ,

और हमें परीक्षा में न ला।’”

माँगते रहो

5 और उसने उनसे कहा, “तुम में से कौन है कि उसका एक मित्र हो, और वह आधी रात को उसके पास जाकर उससे कहे, ‘हे मित्र; मुझे तीन रोटियाँ दे।

6 क्योंकि एक यात्री मित्र मेरे पास आया है, और उसके आगे रखने के लिये मेरे पास कुछ नहीं है।’

7 और वह भीतर से उत्तर देता, कि मुझे दुःख न दे; अब तो द्वार बन्द है, और मेरे बालक मेरे पास बिछौने पर हैं, इसलिए मैं उठकर तुझे दे नहीं सकता।

8 मैं तुम से कहता हूँ, यदि उसका मित्र होने पर भी उसे उठकर न दे, फिर भी उसके लज्जा छोड़कर माँगने के कारण उसे जितनी आवश्यकता हो उतनी उठकर देगा।

9 और मैं तुम से कहता हूँ; कि माँगो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूँढ़ो तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा।

10 क्योंकि जो कोई माँगता है, उसे मिलता है; और जो ढूँढ़ता है, वह पाता है; और जो खटखटाता है, उसके लिये खोला जाएगा।

11 तुम में से ऐसा कौन पिता होगा, कि जब उसका पुत्र रोटी माँगे, तो उसे पत्थर दे: या मछली माँगे, तो मछली के बदले उसे साँप दे?

12 या अण्डा माँगे तो उसे बिच्छू दे?

13 अतः जब तुम बुरे होकर अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएँ देना जानते हो, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता अपने माँगनेवालों को पवित्र आत्मा क्यों न देगा।”

यीशु और दुष्टात्माओं के शासक

14 फिर उसने एक गूँगी दुष्टात्मा को निकाला; जब दुष्टात्मा निकल गई, तो गूँगा बोलने लगा; और लोगों ने अचम्भा किया।

15 परन्तु उनमें से कितनों ने कहा, “यह तो दुष्टात्माओं के प्रधान शैतान की सहायता से दुष्टात्माओं को निकालता है।”

16 औरों ने उसकी परीक्षा करने के लिये उससे आकाश का एक चिन्ह माँगा।

17 परन्तु उसने, उनके मन की बातें जानकर, उनसे कहा, “जिस-जिस राज्य में फूट होती है, वह राज्य उजड़ जाता है; और जिस घर में फूट होती है, वह नाश हो जाता है।

18 और यदि शैतान अपना ही विरोधी हो जाए, तो उसका राज्य कैसे बना रहेगा? क्योंकि तुम मेरे विषय में तो कहते हो, कि यह शैतान की सहायता से दुष्टात्मा निकालता है।

19 भला यदि मैं शैतान की सहायता से दुष्टात्माओं को निकालता हूँ, तो तुम्हारी सन्तान किसकी सहायता से निकालते हैं? इसलिए वे ही तुम्हारा न्याय चुकाएँगे।

20 परन्तु यदि मैं परमेश्वर की सामर्थ्य से दुष्टात्माओं को निकालता हूँ, तो परमेश्वर का राज्य तुम्हारे पास आ पहुँचा।

21 जब बलवन्त मनुष्य हथियार बाँधे हुए अपने घर की रखवाली करता है, तो उसकी सम्पत्ति बची रहती है।

22 पर जब उससे बढ़कर कोई और बलवन्त चढ़ाई करके उसे जीत लेता है, तो उसके वे हथियार जिन पर उसका भरोसा था, छीन लेता है और उसकी सम्पत्ति लूटकर बाँट देता है।

23 जो मेरे साथ नहीं वह मेरे विरोध में है, और जो मेरे साथ नहीं बटोरता वह बिखेरता है।

अशुद्ध आत्मा को घर की तलाश

24 “जब अशुद्ध आत्मा मनुष्य में से निकल जाती है तो सूखी जगहों में विश्राम ढूँढ़ती फिरती है, और जब नहीं पाती तो कहती है, कि मैं अपने उसी घर में जहाँ से निकली थी लौट जाऊँगी।

25 और आकर उसे झाड़ा-बुहारा और सजा-सजाया पाती है।

26 तब वह आकर अपने से और बुरी सात आत्माओं को अपने साथ ले आती है, और वे उसमें समाकर वास करती हैं, और उस मनुष्य की पिछली दशा पहले से भी बुरी हो जाती है।”

27 जब वह ये बातें कह ही रहा था तो भीड़ में से किसी स्त्री ने ऊँचे शब्द से कहा, “धन्य है वह गर्भ जिसमें तू रहा और वे स्तन, जो तूने चूसे।”

28 उसने कहा, “हाँ; परन्तु धन्य वे हैं, जो परमेश्वर का वचन सुनते और मानते हैं।”

स्वर्गीय प्रमाण की माँग

29 जब बड़ी भीड़ इकट्ठी होती जाती थी तो वह कहने लगा, “इस युग के लोग बुरे हैं; वे चिन्ह ढूँढ़ते हैं; पर योना के चिन्ह को छोड़ कोई और चिन्ह उन्हें न दिया जाएगा।

30 जैसा योना नीनवे के लोगों के लिये चिन्ह ठहरा, वैसा ही मनुष्य का पुत्र भी इस युग के लोगों के लिये ठहरेगा।

31 दक्षिण की रानी न्याय के दिन इस समय के मनुष्यों के साथ उठकर, उन्हें दोषी ठहराएगी, क्योंकि वह सुलैमान का ज्ञान सुनने को पृथ्वी की छोर से आई, और देखो यहाँ वह है जो सुलैमान से भी बड़ा है। (1 राजा. 10:1-10, 2 इति. 9:1)

32 नीनवे के लोग न्याय के दिन इस समय के लोगों के साथ खड़े होकर, उन्हें दोषी ठहराएँगे; क्योंकि उन्होंने योना का प्रचार सुनकर मन फिराया और देखो, यहाँ वह है, जो योना से भी बड़ा है। (योना 3:5-10)

शरीर का दीया

33 “कोई मनुष्य दीया जला के तलघर में, या पैमाने के नीचे नहीं रखता, परन्तु दीवट पर रखता है कि भीतर आनेवाले उजियाला पाएँ।

34 तेरे शरीर का दीया तेरी आँख है, इसलिए जब तेरी आँख निर्मल है, तो तेरा सारा शरीर भी उजियाला है; परन्तु जब वह बुरी है, तो तेरा शरीर भी अंधेरा है।

35 इसलिए सावधान रहना, कि जो उजियाला तुझ में है वह अंधेरा न हो जाए।

36 इसलिए यदि तेरा सारा शरीर उजियाला हो, और उसका कोई भाग अंधेरा न रहे, तो सब का सब ऐसा उजियाला होगा, जैसा उस समय होता है, जब दीया अपनी चमक से तुझे उजाला देता है।”

शास्त्रियों और फरीसियों को फटकार

37 जब वह बातें कर रहा था, तो किसी फरीसी ने उससे विनती की, कि मेरे यहाँ भोजन कर; और वह भीतर जाकर भोजन करने बैठा।

38 फरीसी ने यह देखकर अचम्भा किया कि उसने भोजन करने से पहले हाथ-पैर नहीं धोये।

39 प्रभु ने उससे कहा, “हे फरीसियों, तुम कटोरे और थाली को ऊपर-ऊपर तो माँजते हो, परन्तु तुम्हारे भीतर अंधेर और दुष्टता भरी है।

40 हे निर्बुद्धियों, जिसने बाहर का भाग बनाया, \+wjक्या उसने भीतर का भाग नहीं बनाया[fn] \+wj* ?

41 परन्तु हाँ, भीतरवाली वस्तुओं को दान कर दो, तब सब कुछ तुम्हारे लिये शुद्ध हो जाएगा।

42 “पर हे फरीसियों, तुम पर हाय! तुम पोदीने और सुदाब का, और सब भाँति के साग-पात का दसवाँ अंश देते हो, परन्तु न्याय को और परमेश्वर के प्रेम को टाल देते हो; चाहिए तो था कि इन्हें भी करते रहते और उन्हें भी न छोड़ते। (मत्ती 23:23, मीका 6:8, लैव्य. 27:30)

43 हे फरीसियों, तुम पर हाय! तुम आराधनालयों में मुख्य-मुख्य आसन और बाजारों में नमस्कार चाहते हो।

44 हाय तुम पर! क्योंकि तुम उन छिपी कब्रों के समान हो, जिन पर लोग चलते हैं, परन्तु नहीं जानते।”

45 तब एक व्यवस्थापक ने उसको उत्तर दिया, “हे गुरु, इन बातों के कहने से तू हमारी निन्दा करता है।”

46 उसने कहा, “हे व्यवस्थापकों, तुम पर भी हाय! तुम ऐसे बोझ जिनको उठाना कठिन है, मनुष्यों पर लादते हो परन्तु तुम आप उन बोझों को अपनी एक उँगली से भी नहीं छूते।

47 हाय तुम पर! तुम उन भविष्यद्वक्ताओं की कब्रें बनाते हो, जिन्हें तुम्हारे पूर्वजों ने मार डाला था।

48 अतः तुम गवाह हो, और अपने पूर्वजों के कामों से सहमत हो; क्योंकि उन्होंने तो उन्हें मार डाला और तुम उनकी कब्रें बनाते हो।

49 इसलिए परमेश्वर की बुद्धि ने भी कहा है, कि मैं उनके पास भविष्यद्वक्ताओं और प्रेरितों को भेजूँगी, और वे उनमें से कितनों को मार डालेंगे, और कितनों को सताएँगे।

50 ताकि जितने भविष्यद्वक्ताओं का लहू जगत की उत्पत्ति से बहाया गया है, सब का लेखा, इस युग के लोगों से लिया जाए,

51 हाबिल की हत्या से लेकर जकर्याह की हत्या तक जो वेदी और मन्दिर के बीच में मारा गया: मैं तुम से सच कहता हूँ; उसका लेखा इसी समय के लोगों से लिया जाएगा। (उत्प. 4:8, 2 इति. 24:20,21)

52 हाय तुम व्यवस्थापकों पर! कि तुम ने \+wjज्ञान की कुँजी[fn] \+wj* ले तो ली, परन्तु तुम ने आप ही प्रवेश नहीं किया, और प्रवेश करनेवालों को भी रोक दिया।”

53 जब वह वहाँ से निकला, तो शास्त्री और फरीसी बहुत पीछे पड़ गए और छेड़ने लगे, कि वह बहुत सी बातों की चर्चा करे,

54 और उसकी घात में लगे रहे, कि उसके मुँह की कोई बात पकड़ें।

शास्त्रियों और फरीसियों के जैसे मत बनो

12  1 इतने में जब हजारों की भीड़ लग गई, यहाँ तक कि एक दूसरे पर गिरे पड़ते थे, तो वह सबसे पहले अपने चेलों से कहने लगा, “फरीसियों के कपटरूपी ख़मीर से सावधान रहना।

2 कुछ ढँपा नहीं, जो खोला न जाएगा; और न कुछ छिपा है, जो जाना न जाएगा।

3 इसलिए जो कुछ तुम ने अंधेरे में कहा है, वह उजाले में सुना जाएगा; और जो तुम ने भीतर के कमरों में कानों कान कहा है, वह छतों पर प्रचार किया जाएगा।

उसी से डरो

4 “परन्तु मैं तुम से जो मेरे मित्र हो कहता हूँ, कि जो शरीर को मार सकते हैं और उससे ज्यादा और कुछ नहीं कर सकते, उनसे मत डरो।

5 मैं तुम्हें चेतावनी देता हूँ कि तुम्हें किस से डरना चाहिए, मारने के बाद जिसको नरक में डालने का अधिकार है, उसी से डरो; वरन् मैं तुम से कहता हूँ उसी से डरो।

6 क्या दो पैसे की पाँच गौरैयाँ नहीं बिकती? फिर भी परमेश्वर उनमें से एक को भी नहीं भूलता।

7 वरन् तुम्हारे सिर के सब बाल भी गिने हुए हैं, अतः डरो नहीं, तुम बहुत गौरैयों से बढ़कर हो।

यीशु को इन्कार करने का मतलब

8 “मैं तुम से कहता हूँ जो कोई मनुष्यों के सामने मुझे मान लेगा उसे मनुष्य का पुत्र भी परमेश्वर के स्वर्गदूतों के सामने मान लेगा।

9 परन्तु जो मनुष्यों के सामने मुझे इन्कार करे उसका परमेश्वर के स्वर्गदूतों के सामने इन्कार किया जाएगा।

10 “जो कोई मनुष्य के पुत्र के विरोध में कोई बात कहे, उसका वह अपराध क्षमा किया जाएगा। परन्तु जो पवित्र आत्मा की निन्दा करें, उसका अपराध क्षमा नहीं किया जाएगा।

11 “जब लोग तुम्हें आराधनालयों और अधिपतियों और अधिकारियों के सामने ले जाएँ, तो चिन्ता न करना कि हम किस रीति से या क्या उत्तर दें, या क्या कहें।

12 क्योंकि पवित्र आत्मा उसी घड़ी तुम्हें सीखा देगा, कि क्या कहना चाहिए।”

एक धनवान व्यक्ति का दृष्टान्त

13 फिर भीड़ में से एक ने उससे कहा, “हे गुरु, मेरे भाई से कह, कि पिता की सम्पत्ति मुझे बाँट दे[fn]।”

14 उसने उससे कहा, “हे मनुष्य, किसने मुझे तुम्हारा न्यायी या बाँटनेवाला नियुक्त किया है?” (निर्ग. 2:14)

15 और उसने उनसे कहा, “सावधान रहो, और हर प्रकार के लोभ से अपने आपको बचाए रखो; क्योंकि किसी का जीवन उसकी सम्पत्ति की बहुतायत से नहीं होता।”

16 उसने उनसे एक दृष्टान्त कहा, “किसी धनवान की भूमि में बड़ी उपज हुई।

17 “तब वह अपने मन में विचार करने लगा, कि मैं क्या करूँ, क्योंकि मेरे यहाँ जगह नहीं, जहाँ अपनी उपज इत्यादि रखूँ।

18 और उसने कहा, ‘मैं यह करूँगा: मैं अपनी बखारियाँ तोड़कर उनसे बड़ी बनाऊँगा; और वहाँ अपना सब अन्न और सम्पत्ति रखूँगा;

19 ‘और अपने प्राण से कहूँगा, कि प्राण, तेरे पास बहुत वर्षों के लिये बहुत सम्पत्ति रखी है; चैन कर, खा, पी, सुख से रह।’

20 परन्तु परमेश्वर ने उससे कहा, ‘हे मूर्ख! इसी रात तेरा प्राण तुझ से ले लिया जाएगा; तब जो कुछ तूने इकट्ठा किया है, वह किसका होगा?’

21 ऐसा ही वह मनुष्य भी है जो अपने लिये धन बटोरता है, परन्तु परमेश्वर की दृष्टि में धनी नहीं।”

किसी बात की चिन्ता ना करो

22 फिर उसने अपने चेलों से कहा, “इसलिए मैं तुम से कहता हूँ, अपने जीवन की चिन्ता न करो, कि हम क्या खाएँगे; न अपने शरीर की, कि क्या पहनेंगे।

23 क्योंकि भोजन से प्राण, और वस्त्र से शरीर बढ़कर है।

24 कौवों पर ध्यान दो; वे न बोते हैं, न काटते; न उनके भण्डार और न खत्ता होता है; फिर भी परमेश्वर उन्हें खिलाता है। तुम्हारा मूल्य पक्षियों से कहीं अधिक है (भज. 147:9)

25 तुम में से ऐसा कौन है, जो चिन्ता करने से अपने जीवनकाल में एक घड़ी भी बढ़ा सकता है?

26 इसलिए यदि तुम सबसे छोटा काम भी नहीं कर सकते, तो और बातों के लिये क्यों चिन्ता करते हो?

27 सोसनों पर ध्यान करो, कि वे कैसे बढ़ते हैं; वे न परिश्रम करते, न काटते हैं; फिर भी मैं तुम से कहता हूँ, कि सुलैमान भी अपने सारे वैभव में, उनमें से किसी एक के समान वस्त्र पहने हुए न था।

28 इसलिए यदि परमेश्वर मैदान की घास को जो आज है, और कल भट्ठी में झोंकी जाएगी, ऐसा पहनाता है; तो हे अल्पविश्वासियों, वह तुम्हें अधिक क्यों न पहनाएगा?

29 और तुम इस बात की खोज में न रहो, कि क्या खाएँगे और क्या पीएँगे, और न सन्देह करो।

30 क्योंकि संसार की जातियाँ इन सब वस्तुओं की खोज में रहती हैं और तुम्हारा पिता जानता है, कि तुम्हें इन वस्तुओं की आवश्यकता है।

31 परन्तु उसके राज्य की खोज में रहो, तो ये वस्तुएँ भी तुम्हें मिल जाएँगी।

धन को कहाँ इकट्ठा करना?

32 “हे छोटे झुण्ड, मत डर; क्योंकि तुम्हारे पिता को यह भाया है, कि तुम्हें राज्य दे।

33 \+wj \+wj* अपनी सम्पत्ति बेचकर [fn] दान कर दो; और अपने लिये ऐसे बटुए बनाओ, जो पुराने नहीं होते, अर्थात् स्वर्ग पर ऐसा धन इकट्ठा करो जो घटता नहीं, जिसके निकट चोर नहीं जाता, और कीड़ा नाश नहीं करता।

34 क्योंकि जहाँ तुम्हारा धन है, वहाँ तुम्हारा मन भी लगा रहेगा।

सदा तैयार रहो

35 “तुम्हारी कमर बंधी रहें, और तुम्हारे दीये जलते रहें। (निर्ग. 12:11, 2 राजा. 4:29, इफि. 6:14, मत्ती 5:16)

36 और तुम उन मनुष्यों के समान बनो, जो अपने स्वामी की प्रतीक्षा कर रहे हों, कि वह विवाह से कब लौटेगा; कि जब वह आकर द्वार खटखटाएँ तो तुरन्त उसके लिए खोल दें।

37 धन्य हैं वे दास, जिन्हें स्वामी आकर जागते पाए; मैं तुम से सच कहता हूँ, कि वह कमर बाँधकर उन्हें भोजन करने को बैठाएगा, और पास आकर उनकी सेवा करेगा।

38 यदि वह रात के दूसरे पहर या तीसरे पहर में आकर उन्हें जागते पाए, तो वे दास धन्य हैं।

39 परन्तु तुम यह जान रखो, कि यदि घर का स्वामी जानता, कि चोर किस घड़ी आएगा, तो जागता रहता, और अपने घर में सेंध लगने न देता।

40 तुम भी तैयार रहो; क्योंकि जिस घड़ी तुम सोचते भी नहीं, उस घड़ी मनुष्य का पुत्र आ जाएगा।”

विश्वासयोग्य सेवक कौन?

41 तब पतरस ने कहा, “हे प्रभु, क्या यह दृष्टान्त तू हम ही से या सबसे कहता है।”

42 प्रभु ने कहा, “वह विश्वासयोग्य और बुद्धिमान भण्डारी कौन है, जिसका स्वामी उसे नौकर-चाकरों पर सरदार ठहराए कि उन्हें समय पर भोजन सामग्री दे।

43 धन्य है वह दास, जिसे उसका स्वामी आकर ऐसा ही करते पाए।

44 मैं तुम से सच कहता हूँ; वह उसे अपनी सब सम्पत्ति पर अधिकारी ठहराएगा।

45 परन्तु यदि वह दास सोचने लगे, कि मेरा स्वामी आने में देर कर रहा है, और दासों और दासियों को मारने-पीटने और खाने-पीने और पियक्कड़ होने लगे।

46 तो उस दास का स्वामी ऐसे दिन, जब वह उसकी प्रतीक्षा न कर रहा हो, और ऐसी घड़ी जिसे वह जानता न हो, आएगा और उसे भारी ताड़ना देकर उसका भाग विश्वासघाती के साथ ठहराएगा।

47 और \+wjवह दास जो अपने स्वामी की इच्छा जानता था[fn] \+wj* , और तैयार न रहा और न उसकी इच्छा के अनुसार चला, बहुत मार खाएगा।

48 परन्तु जो नहीं जानकर मार खाने के योग्य काम करे वह थोड़ी मार खाएगा, इसलिए जिसे बहुत दिया गया है, उससे बहुत माँगा जाएगा; और जिसे बहुत सौंपा गया है, उससे बहुत लिया जाएगा।

शान्ति नहीं फूट

49 “मैं पृथ्वी पर \+wjआग[fn] \+wj* लगाने आया हूँ; और क्या चाहता हूँ केवल यह कि अभी सुलग जाती!

50 मुझे तो एक बपतिस्मा लेना है; और जब तक वह न हो ले तब तक मैं कैसी व्यथा में रहूँगा!

51 क्या तुम समझते हो कि मैं पृथ्वी पर मिलाप कराने आया हूँ? मैं तुम से कहता हूँ; नहीं, वरन् अलग कराने आया हूँ।

52 क्योंकि अब से एक घर में पाँच जन आपस में विरोध रखेंगे, तीन दो से दो तीन से।

53 पिता पुत्र से, और पुत्र पिता से विरोध रखेगा; माँ बेटी से, और बेटी माँ से, सास बहू से, और बहू सास से विरोध रखेगी।” (मीका 7:6)

समय की पहचान

54 और उसने भीड़ से भी कहा, “जब बादल को पश्चिम से उठते देखते हो, तो तुरन्त कहते हो, कि वर्षा होगी; और ऐसा ही होता है।

55 और जब दक्षिणी हवा चलती देखते हो तो कहते हो, कि लूह चलेगी, और ऐसा ही होता है।

56 हे कपटियों, तुम धरती और आकाश के रूप में भेद कर सकते हो, परन्तु इस युग के विषय में क्यों भेद करना नहीं जानते?

अपनी समस्याओं को सुलझाओ

57 “तुम आप ही निर्णय क्यों नहीं कर लेते, कि उचित क्या है?

58 जब तू अपने मुद्दई के साथ न्यायाधीश के पास जा रहा है, तो मार्ग ही में उससे छूटने का यत्न कर ले ऐसा न हो, कि वह तुझे न्यायी के पास खींच ले जाए, और न्यायी तुझे सिपाही को सौंपे और सिपाही तुझे बन्दीगृह में डाल दे।

59 मैं तुम से कहता हूँ, कि जब तक तू पाई-पाई न चुका देगा तब तक वहाँ से छूटने न पाएगा।”

पश्चाताप करो या नाश हों

13  1 उस समय कुछ लोग आ पहुँचे, और यीशु से उन गलीलियों की चर्चा करने लगे, जिनका लहू पिलातुस ने उन ही के बलिदानों के साथ मिलाया था।

2 यह सुनकर यीशु ने उनको उत्तर में यह कहा, “क्या तुम समझते हो, कि ये गलीली बाकी गलीलियों से पापी थे कि उन पर ऐसी विपत्ति पड़ी?”

3 मैं तुम से कहता हूँ, कि नहीं; परन्तु \+wjयदि तुम मन न फिराओगे[fn] \+wj* तो तुम सब भी इसी रीति से नाश होंगे।

4 या क्या तुम समझते हो, कि वे अठारह जन जिन पर शीलोह का गुम्मट गिरा, और वे दबकर मर गए: यरूशलेम के और सब रहनेवालों से अधिक अपराधी थे?

5 मैं तुम से कहता हूँ, कि नहीं; परन्तु यदि तुम मन न फिराओगे तो तुम भी सब इसी रीति से नाश होंगे।”

बिना फलवाला अंजीर का पेड़

6 फिर उसने यह दृष्टान्त भी कहा, “किसी की \+wjअंगूर की बारी[fn] \+wj* में एक अंजीर का पेड़ लगा हुआ था: वह उसमें फल ढूँढ़ने आया, परन्तु न पाया। (मत्ती 21:19,20, मर. 11:12-14)

7 तब उसने बारी के रखवाले से कहा, ‘देख तीन वर्ष से मैं इस अंजीर के पेड़ में फल ढूँढ़ने आता हूँ, परन्तु नहीं पाता, इसे काट डाल कि यह भूमि को भी क्यों रोके रहे?’

8 उसने उसको उत्तर दिया, कि हे स्वामी, इसे इस वर्ष तो और रहने दे; कि मैं इसके चारों ओर खोदकर खाद डालूँ।

9 अतः आगे को फले तो भला, नहीं तो उसे काट डालना।”

कुबड़ी स्त्री को चंगा करना

10 सब्त के दिन वह एक आराधनालय में उपदेश दे रहा था।

11 वहाँ एक स्त्री थी, जिसे अठारह वर्ष से एक दुर्बल करनेवाली दुष्टात्मा लगी थी, और वह कुबड़ी हो गई थी, और किसी रीति से सीधी नहीं हो सकती थी।

12 यीशु ने उसे देखकर बुलाया, और कहा, “हे नारी, तू अपनी दुर्बलता से छूट गई।”

13 तब उसने उस पर हाथ रखे, और वह तुरन्त सीधी हो गई, और परमेश्वर की बड़ाई करने लगी।

14 इसलिए कि यीशु ने सब्त के दिन उसे अच्छा किया था[fn], आराधनालय का सरदार रिसियाकर लोगों से कहने लगा, “छः दिन हैं, जिनमें काम करना चाहिए, अतः उन ही दिनों में आकर चंगे हो; परन्तु सब्त के दिन में नहीं।” (निर्ग. 20:9,10, व्यव. 5:13,14)

15 यह सुनकर प्रभु ने उत्तर देकर कहा, “हे कपटियों, क्या सब्त के दिन तुम में से हर एक अपने बैल या गदहे को थान से खोलकर पानी पिलाने नहीं ले जाता?

16 “और क्या उचित न था, कि यह स्त्री जो अब्राहम की बेटी है, जिसे शैतान ने अठारह वर्ष से बाँध रखा था, सब्त के दिन इस बन्धन से छुड़ाई जाती?”

17 जब उसने ये बातें कहीं, तो उसके सब विरोधी लज्जित हो गए, और सारी भीड़ उन महिमा के कामों से जो वह करता था, आनन्दित हुई।

राई के दाने और ख़मीर का दृष्टान्त

18 फिर उसने कहा, “परमेश्वर का राज्य किसके समान है? और मैं उसकी उपमा किस से दूँ?

19 वह राई के एक दाने के समान है, जिसे किसी मनुष्य ने लेकर अपनी बारी में बोया: और वह बढ़कर पेड़ हो गया; और आकाश के पक्षियों ने उसकी डालियों पर बसेरा किया।” (मत्ती 13:31,32, यहे. 31:6, दानि. 4:21)

20 उसने फिर कहा, “मैं परमेश्वर के राज्य कि उपमा किस से दूँ?

21 वह ख़मीर के समान है, जिसको किसी स्त्री ने लेकर तीन पसेरी आटे में मिलाया, और होते-होते सब आटा ख़मीर हो गया।”

सकेत द्वार

22 वह नगर-नगर, और गाँव-गाँव होकर उपदेश देता हुआ यरूशलेम की ओर जा रहा था।

23 और किसी ने उससे पूछा, “हे प्रभु, क्या उद्धार पानेवाले थोड़े हैं?” उसने उनसे कहा,

24 “सकेत द्वार से प्रवेश करने का यत्न करो, क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ, कि बहुत से प्रवेश करना चाहेंगे, और न कर सकेंगे।

25 जब घर का स्वामी उठकर द्वार बन्द कर चुका हो, और तुम बाहर खड़े हुए द्वार खटखटाकर कहने लगो, ‘हे प्रभु, हमारे लिये खोल दे,’ और वह उत्तर दे कि मैं तुम्हें नहीं जानता, तुम कहाँ के हो?

26 तब तुम कहने लगोगे, ‘कि हमने तेरे सामने खाया-पीया और तूने हमारे बजारों में उपदेश दिया।’

27 परन्तु वह कहेगा, मैं तुम से कहता हूँ, ‘मैं नहीं जानता तुम कहाँ से हो। हे कुकर्म करनेवालों, तुम सब मुझसे दूर हो।’ (भज. 6:8)

28 वहाँ रोना और दाँत पीसना होगा, जब तुम अब्राहम और इसहाक और याकूब और सब भविष्यद्वक्ताओं को परमेश्वर के राज्य में बैठे, और अपने आपको बाहर निकाले हुए देखोगे।

29 और पूर्व और पश्चिम; उत्तर और दक्षिण से लोग आकर परमेश्वर के राज्य के भोज में भागी होंगे। (यशा. 66:18, प्रका. 7:9, भज. 107:3, मला. 1:11)

30 यह जान लो, कितने पिछले हैं वे प्रथम होंगे, और कितने जो प्रथम हैं, वे पिछले होंगे।”

हेरोदेस की शत्रुता

31 उसी घड़ी कितने फरीसियों ने आकर उससे कहा, “यहाँ से निकलकर चला जा; क्योंकि हेरोदेस तुझे मार डालना चाहता है।”

32 उसने उनसे कहा, “जाकर उस लोमड़ी से कह दो, कि देख मैं आज और कल दुष्टात्माओं को निकालता और बीमारों को चंगा करता हूँ और तीसरे दिन अपना कार्य पूरा करूँगा।

33 तो भी मुझे आज और कल और परसों चलना अवश्य है, क्योंकि हो नहीं सकता कि कोई भविष्यद्वक्ता यरूशलेम के बाहर मारा जाए।

यरूशलेम के लिये विलाप

34 “हे यरूशलेम! हे यरूशलेम! तू जो भविष्यद्वक्ताओं को मार डालता है, और जो तेरे पास भेजे गए उन्हें पत्थराव करता है; कितनी ही बार मैंने यह चाहा, कि जैसे मुर्गी अपने बच्चों को अपने पंखों के नीचे इकट्ठे करती है, वैसे ही मैं भी तेरे बालकों को इकट्ठे करूँ, पर तुम ने यह न चाहा।

35 देखो, तुम्हारा घर तुम्हारे लिये उजाड़ छोड़ा जाता है, और मैं तुम से कहता हूँ; जब तक तुम न कहोगे, ‘धन्य है वह, जो प्रभु के नाम से आता है,’ तब तक तुम मुझे फिर कभी न देखोगे।” (भज. 118:26, यिर्म. 12:7)

सब्त के दिन चंगाई

14  1 फिर वह सब्त के दिन फरीसियों के सरदारों में से किसी के घर में रोटी खाने गया: और वे उसकी घात में थे।

2 वहाँ एक मनुष्य उसके सामने था, जिसे जलोदर का रोग[fn] था।

3 इस पर यीशु ने व्यवस्थापकों और फरीसियों से कहा, “क्या सब्त के दिन अच्छा करना उचित है, कि नहीं?”

4 परन्तु वे चुपचाप रहे। तब उसने उसे हाथ लगाकर चंगा किया, और जाने दिया।

5 और उनसे कहा, “तुम में से ऐसा कौन है, जिसका पुत्र या बैल कुएँ में गिर जाए और वह सब्त के दिन उसे तुरन्त बाहर न निकाल ले?”

6 वे इन बातों का कुछ उत्तर न दे सके।

अतिथियों का सत्कार

7 जब उसने देखा, कि आमन्त्रित लोग कैसे मुख्य-मुख्य जगह चुन लेते हैं तो एक दृष्टान्त देकर उनसे कहा,

8 “जब कोई तुझे विवाह में बुलाए, तो मुख्य जगह में न बैठना, कहीं ऐसा न हो, कि उसने तुझ से भी किसी बड़े को नेवता दिया हो।

9 और जिसने तुझे और उसे दोनों को नेवता दिया है, आकर तुझ से कहे, ‘इसको जगह दे,’ और तब तुझे लज्जित होकर सबसे नीची जगह में बैठना पड़े।

10 पर जब तू बुलाया जाए, तो सबसे नीची जगह जा बैठ, कि जब वह, जिसने तुझे नेवता दिया है आए, तो तुझ से कहे ‘हे मित्र, आगे बढ़कर बैठ,’ तब तेरे साथ बैठनेवालों के सामने तेरी बड़ाई होगी। (नीति. 25:6,7)

11 क्योंकि जो कोई अपने आपको बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा; और जो कोई अपने आपको छोटा बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा।”

प्रतिफल

12 तब उसने अपने नेवता देनेवाले से भी कहा, “जब तू दिन का या रात का भोज करे, तो अपने मित्रों या भाइयों या कुटुम्बियों या धनवान पड़ोसियों को न बुला, कहीं ऐसा न हो, कि वे भी तुझे नेवता दें, और तेरा बदला हो जाए।

13 परन्तु जब तू भोज करे, तो कंगालों, टुण्डों, लँगड़ों और अंधों को बुला।

14 तब तू धन्य होगा, क्योंकि उनके पास तुझे बदला देने को कुछ नहीं, परन्तु तुझे \+wjधर्मियों के जी उठने[fn] \+wj* पर इसका प्रतिफल मिलेगा।”

बड़े भोज का दृष्टान्त

15 उसके साथ भोजन करनेवालों में से एक ने ये बातें सुनकर उससे कहा, “धन्य है वह, जो परमेश्वर के राज्य में रोटी खाएगा।”

16 उसने उससे कहा, “किसी मनुष्य ने बड़ा भोज दिया और बहुतों को बुलाया।

17 जब भोजन तैयार हो गया, तो उसने अपने दास के हाथ आमन्त्रित लोगों को कहला भेजा, ‘आओ; अब भोजन तैयार है।’

18 पर वे सब के सब क्षमा माँगने लगे, पहले ने उससे कहा, ‘मैंने खेत मोल लिया है, और अवश्य है कि उसे देखूँ; मैं तुझ से विनती करता हूँ, मुझे क्षमा कर दे।’

19 दूसरे ने कहा, ‘मैंने पाँच जोड़े बैल मोल लिए हैं, और उन्हें परखने जा रहा हूँ; मैं तुझ से विनती करता हूँ, मुझे क्षमा कर दे।’

20 एक और ने कहा, ‘मैंने विवाह किया है, इसलिए मैं नहीं आ सकता।’

21 उस दास ने आकर अपने स्वामी को ये बातें कह सुनाईं। तब घर के स्वामी ने क्रोध में आकर अपने दास से कहा, ‘नगर के बाजारों और गलियों में तुरन्त जाकर कंगालों, टुण्डों, लँगड़ों और अंधों को यहाँ ले आओ।’

22 दास ने फिर कहा, ‘हे स्वामी, जैसे तूने कहा था, वैसे ही किया गया है; फिर भी जगह है।’

23 स्वामी ने दास से कहा, ‘सड़कों पर और बाड़ों की ओर जाकर लोगों को बरबस ले ही आ ताकि मेरा घर भर जाए।

24 क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ, कि \+wjउन आमन्त्रित लोगों में से कोई मेरे भोज को न चखेगा[fn] \+wj* ।’”

कौन यीशु का चेला बन सकता है?

25 और जब बड़ी भीड़ उसके साथ जा रही थी, तो उसने पीछे फिरकर उनसे कहा।

26 “यदि कोई मेरे पास आए, और अपने पिता और माता और पत्नी और बच्चों और भाइयों और बहनों वरन् अपने प्राण को भी अप्रिय न जाने, तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता; (मत्ती 10:37, यूह. 12:25, व्यव. 33:9)

27 और जो कोई अपना क्रूस न उठाए; और मेरे पीछे न आए; वह भी मेरा चेला नहीं हो सकता।

28 “तुम में से कौन है कि गढ़ बनाना चाहता हो, और पहले बैठकर खर्च न जोड़े, कि पूरा करने की सामर्थ्य मेरे पास है कि नहीं?

29 कहीं ऐसा न हो, कि जब नींव डालकर तैयार न कर सके, तो सब देखनेवाले यह कहकर उसका उपहास करेंगे,

30 ‘यह मनुष्य बनाने तो लगा, पर तैयार न कर सका?’

31 या कौन ऐसा राजा है, कि दूसरे राजा से युद्ध करने जाता हो, और पहले बैठकर विचार न कर ले कि जो बीस हजार लेकर मुझ पर चढ़ा आता है, क्या मैं दस हजार लेकर उसका सामना कर सकता हूँ, कि नहीं?

32 नहीं तो उसके दूर रहते ही, वह दूत को भेजकर मिलाप करना चाहेगा।

33 इसी रीति से तुम में से जो कोई अपना सब कुछ त्याग न दे, तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता।

स्वादहीन नमक

34 “नमक तो अच्छा है, परन्तु यदि नमक का स्वाद बिगड़ जाए, तो वह किस वस्तु से नमकीन किया जाएगा।

35 वह न तो भूमि के और न खाद के लिये काम में आता है: उसे तो लोग बाहर फेंक देते हैं। जिसके सुनने के कान हों वह सुन ले।”

खोई हुई भेड़ का दृष्टान्त

15  1 सब चुंगी लेनेवाले और पापी उसके पास आया करते थे ताकि उसकी सुनें।

2 और फरीसी और शास्त्री कुढ़कुढ़ाकर कहने लगे, “यह तो पापियों से मिलता है और उनके साथ खाता भी है।”

3 तब उसने उनसे यह दृष्टान्त कहा:

4 “तुम में से कौन है जिसकी सौ भेड़ें हों, और उनमें से एक खो जाए तो निन्यानवे को मैदान में छोड़कर, उस खोई हुई को जब तक मिल न जाए खोजता न रहे? (यहे. 34:11,12,16)

5 और जब मिल जाती है, तब वह बड़े आनन्द से उसे काँधे पर उठा लेता है।

6 और घर में आकर मित्रों और पड़ोसियों को इकट्ठे करके कहता है, ‘मेरे साथ आनन्द करो, क्योंकि मेरी खोई हुई भेड़ मिल गई है।’

7 मैं तुम से कहता हूँ; कि इसी रीति से एक मन फिरानेवाले पापी के विषय में भी स्वर्ग में इतना ही आनन्द होगा, जितना कि निन्यानवे ऐसे धर्मियों के विषय नहीं होता, जिन्हें मन फिराने की आवश्यकता नहीं।

खोए हुए सिक्के का दृष्टान्त

8 “या कौन ऐसी स्त्री होगी, जिसके पास दस चाँदी के सिक्के हों, और उनमें से एक खो जाए; तो वह दीया जलाकर और घर झाड़-बुहारकर जब तक मिल न जाए, जी लगाकर खोजती न रहे?

9 और जब मिल जाता है, तो वह अपने सखियों और पड़ोसिनियों को इकट्ठी करके कहती है, कि ‘मेरे साथ आनन्द करो, क्योंकि मेरा खोया हुआ सिक्का मिल गया है।’

10 मैं तुम से कहता हूँ; कि इसी रीति से एक मन फिरानेवाले पापी के विषय में परमेश्वर के स्वर्गदूतों के सामने आनन्द होता है।”

उड़ाऊ पुत्र का दृष्टान्त

11 फिर उसने कहा, “किसी मनुष्य के दो पुत्र थे।

12 उनमें से छोटे ने पिता से कहा ‘हे पिता, सम्पत्ति में से जो भाग मेरा हो, वह मुझे दे दीजिए।’ उसने उनको अपनी सम्पत्ति बाँट दी।

13 और बहुत दिन न बीते थे कि छोटा पुत्र सब कुछ इकट्ठा करके एक दूर देश को चला गया और वहाँ कुकर्म में अपनी सम्पत्ति उड़ा दी। (नीति. 29:3)

14 जब वह सब कुछ खर्च कर चुका, तो उस देश में बड़ा अकाल पड़ा, और वह कंगाल हो गया।

15 और वह उस देश के निवासियों में से एक के यहाँ गया, उसने उसे अपने खेतों में \+wjसूअर चराने के लिये[fn] \+wj* भेजा।

16 और वह चाहता था, कि उन फलियों से जिन्हें सूअर खाते थे अपना पेट भरे; क्योंकि उसे कोई कुछ नहीं देता था।

17 जब वह अपने आपे में आया, तब कहने लगा, ‘मेरे पिता के कितने ही मजदूरों को भोजन से अधिक रोटी मिलती है, और मैं यहाँ भूखा मर रहा हूँ।

18 मैं अब उठकर अपने पिता के पास जाऊँगा और उससे कहूँगा कि पिता जी मैंने स्वर्ग के विरोध में और तेरी दृष्टि में पाप किया है। (भज. 51:4)

19 अब इस योग्य नहीं रहा कि तेरा पुत्र कहलाऊँ, मुझे अपने एक मजदूर के समान रख ले।’

उड़ाऊ पुत्र का लौटना

20 “तब वह उठकर, अपने पिता के पास चला: वह अभी दूर ही था, कि उसके पिता ने उसे देखकर तरस खाया, और दौड़कर उसे गले लगाया, और बहुत चूमा।

21 पुत्र ने उससे कहा, ‘पिता जी, मैंने स्वर्ग के विरोध में और तेरी दृष्टि में पाप किया है; और अब इस योग्य नहीं रहा, कि तेरा पुत्र कहलाऊँ।’

22 परन्तु पिता ने अपने दासों से कहा, ‘झट अच्छे से अच्छा वस्त्र निकालकर उसे पहनाओ, और उसके हाथ में अंगूठी, और पाँवों में जूतियाँ पहनाओ,

23 और बड़ा भोज तैयार करो ताकि हम खाएँ और आनन्द मनाएँ।

24 क्योंकि मेरा यह पुत्र मर गया था, फिर जी गया है: \+wjखो गया था[fn] \+wj* , अब मिल गया है।’ और वे आनन्द करने लगे।

बड़े पुत्र की शिकायत

25 “परन्तु उसका जेठा पुत्र खेत में था। और जब वह आते हुए घर के निकट पहुँचा, तो उसने गाने-बजाने और नाचने का शब्द सुना।

26 और उसने एक दास को बुलाकर पूछा, ‘यह क्या हो रहा है?’

27 “उसने उससे कहा, ‘तेरा भाई आया है, और तेरे पिता ने बड़ा भोज तैयार कराया है, क्योंकि उसे भला चंगा पाया है।’

28 यह सुनकर वह क्रोध से भर गया और भीतर जाना न चाहा: परन्तु उसका पिता बाहर आकर उसे मनाने लगा।

29 उसने पिता को उत्तर दिया, ‘देख; मैं इतने वर्ष से तेरी सेवा कर रहा हूँ, और कभी भी तेरी आज्ञा नहीं टाली, फिर भी तूने मुझे कभी एक बकरी का बच्चा भी न दिया, कि मैं अपने मित्रों के साथ आनन्द करता।

30 परन्तु जब तेरा यह पुत्र, जिसने तेरी सम्पत्ति वेश्याओं में उड़ा दी है, आया, तो उसके लिये तूने बड़ा भोज तैयार कराया।’

31 उसने उससे कहा, ‘पुत्र, तू सर्वदा मेरे साथ है; और\+wjजो कुछ मेरा है वह सब तेरा ही है[fn] \+wj*

32 परन्तु अब आनन्द करना और मगन होना चाहिए क्योंकि यह तेरा भाई मर गया था फिर जी गया है; खो गया था, अब मिल गया है।’”

चालाक प्रबन्धक

16  1 फिर उसने चेलों से भी कहा, “किसी धनवान का एक भण्डारी था, और लोगों ने उसके सामने भण्डारी पर यह दोष लगाया कि यह तेरी सब सम्पत्ति उड़ाए देता है।

2 अतः धनवान ने उसे बुलाकर कहा, ‘यह क्या है जो मैं तेरे विषय में सुन रहा हूँ? अपने भण्डारीपन का लेखा दे; क्योंकि तू आगे को भण्डारी नहीं रह सकता।’

3 तब भण्डारी सोचने लगा, ‘अब मैं क्या करूँ? क्योंकि मेरा स्वामी अब भण्डारी का काम मुझसे छीन रहा है: मिट्टी तो मुझसे खोदी नहीं जाती; और भीख माँगने से मुझे लज्जा आती है।

4 मैं समझ गया, कि क्या करूँगा: ताकि जब मैं भण्डारी के काम से छुड़ाया जाऊँ तो लोग मुझे अपने घरों में ले लें।’

5 और उसने अपने स्वामी के देनदारों में से एक-एक को बुलाकर पहले से पूछा, कि तुझ पर मेरे स्वामी का कितना कर्ज है?

6 उसने कहा, ‘सौ मन जैतून का तेल,’ तब उसने उससे कहा, कि अपनी खाता-बही ले और बैठकर तुरन्त पचास लिख दे।

7 फिर दूसरे से पूछा, ‘तुझ पर कितना कर्ज है?’ उसने कहा, ‘सौ मन गेहूँ,’ तब उसने उससे कहा, ‘अपनी खाता-बही लेकर अस्सी लिख दे।’

8 “स्वामी ने उस अधर्मी भण्डारी को सराहा, कि उसने चतुराई से काम किया है; क्योंकि इस संसार के लोग अपने समय के लोगों के साथ रीति-व्यवहारों में \+wjज्योति के लोगों[fn] \+wj* से अधिक चतुर हैं।

9 और मैं तुम से कहता हूँ, कि अधर्म के धन से अपने लिये मित्र बना लो; ताकि जब वह जाता रहे, तो वे तुम्हें अनन्त निवासों में ले लें।

10 जो थोड़े से थोड़े में विश्वासयोग्य है, वह बहुत में भी विश्वासयोग्य है: और जो थोड़े से थोड़े में अधर्मी है, वह बहुत में भी अधर्मी है।

11 इसलिए जब तुम सांसारिक धन में विश्वासयोग्य न ठहरे, तो सच्चा धन तुम्हें कौन सौंपेगा?

12 और यदि तुम पराए धन में विश्वासयोग्य न ठहरे, तो जो तुम्हारा है, उसे तुम्हें कौन देगा?

13 “कोई दास दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता क्योंकि वह तो एक से बैर और दूसरे से प्रेम रखेगा; या एक से मिला रहेगा और दूसरे को तुच्छ जानेगा: तुम परमेश्वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते।”

परमेश्वर के राज्य का मूल्य

14 फरीसी जो लोभी थे, ये सब बातें सुनकर उसका उपहास करने लगे।

15 उसने उनसे कहा, “तुम तो मनुष्यों के सामने अपने आपको धर्मी ठहराते हो, परन्तु परमेश्वर तुम्हारे मन को जानता है, क्योंकि जो वस्तु मनुष्यों की दृष्टि में महान है, वह परमेश्वर के निकट घृणित है।

16 “जब तक यूहन्ना आया, तब तक व्यवस्था और भविष्यद्वक्ता प्रभाव में थे। उस समय से परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाया जा रहा है, और हर कोई उसमें प्रबलता से प्रवेश करता है।

17 आकाश और पृथ्वी का टल जाना व्यवस्था के एक बिन्दु के मिट जाने से सहज है।

18 “जो कोई अपनी पत्नी को त्याग कर दूसरी से विवाह करता है, वह व्यभिचार करता है, और जो कोई ऐसी त्यागी हुई स्त्री से विवाह करता है, वह भी व्यभिचार करता है।

धनवान व्यक्ति और गरीब लाज़र

19 “एक धनवान मनुष्य था जो बैंगनी कपड़े और मलमल पहनता और प्रति-दिन सुख-विलास और धूम-धाम के साथ रहता था।

20 और \+wjलाज़र[fn] \+wj* नाम का एक कंगाल घावों से भरा हुआ उसकी डेवढ़ी पर छोड़ दिया जाता था।

21 और वह चाहता था, कि धनवान की मेज पर की जूठन से अपना पेट भरे; वरन् कुत्ते भी आकर उसके घावों को चाटते थे।

22 और ऐसा हुआ कि वह कंगाल मर गया, और स्वर्गदूतों ने उसे लेकर अब्राहम की गोद में पहुँचाया। और वह धनवान भी मरा; और गाड़ा गया,

23 और \+wjअधोलोक[fn] \+wj* में उसने पीड़ा में पड़े हुए अपनी आँखें उठाई, और दूर से अब्राहम की गोद में लाज़र को देखा।

24 और उसने पुकारकर कहा, ‘हे पिता अब्राहम, मुझ पर दया करके लाज़र को भेज दे, ताकि वह अपनी उँगली का सिरा पानी में भिगोकर मेरी जीभ को ठंडी करे, क्योंकि मैं इस ज्वाला में तड़प रहा हूँ।’

25 परन्तु अब्राहम ने कहा, ‘हे पुत्र स्मरण कर, कि तू अपने जीवनकाल में अच्छी वस्तुएँ पा चुका है, और वैसे ही लाज़र बुरी वस्तुएँ परन्तु अब वह यहाँ शान्ति पा रहा है, और तू तड़प रहा है।

26 ‘और इन सब बातों को छोड़ हमारे और तुम्हारे बीच एक बड़ी खाई ठहराई गई है कि जो यहाँ से उस पार तुम्हारे पास जाना चाहें, वे न जा सके, और न कोई वहाँ से इस पार हमारे पास आ सके।’

27 उसने कहा, ‘तो हे पिता, मैं तुझ से विनती करता हूँ, कि तू उसे मेरे पिता के घर भेज,

28 क्योंकि मेरे पाँच भाई हैं; वह उनके सामने इन बातों की चेतावनी दे, ऐसा न हो कि वे भी इस पीड़ा की जगह में आएँ।’

29 अब्राहम ने उससे कहा, ‘उनके पास तो मूसा और भविष्यद्वक्ताओं की पुस्तकें हैं, वे उनकी सुनें।’

30 उसने कहा, ‘नहीं, हे पिता अब्राहम; पर यदि कोई मरे हुओं में से उनके पास जाए, तो वे मन फिराएँगे।’

31 उसने उससे कहा, ‘जब वे मूसा और भविष्यद्वक्ताओं की नहीं सुनते, तो यदि मरे हुओं में से कोई भी जी उठे तो भी उसकी नहीं मानेंगे।’”

चेतावनी

17  1 फिर उसने अपने चेलों से कहा, “यह निश्चित है कि वे बातें जो पाप का कारण है, आएँगे परन्तु हाय, उस मनुष्य पर जिसके कारण वे आती है!

2 जो इन छोटों में से किसी एक को ठोकर खिलाता है, उसके लिये यह भला होता कि चक्की का पाट उसके गले में लटकाया जाता, और वह समुद्र में डाल दिया जाता।

3 सचेत रहो; यदि तेरा भाई अपराध करे तो उसे डाँट, और यदि पछताए तो उसे क्षमा कर।

4 यदि दिन भर में वह सात बार तेरा अपराध करे और सातों बार तेरे पास फिर आकर कहे, कि मैं पछताता हूँ, तो उसे क्षमा कर।”

तुम्हारा विश्वास कितना बड़ा है?

5 तब प्रेरितों ने प्रभु से कहा, “हमारा विश्वास बढ़ा।”

6 प्रभु ने कहा, “यदि तुम को राई के दाने के बराबर भी विश्वास होता, तो तुम इस शहतूत के पेड़ से कहते कि जड़ से उखड़कर समुद्र में लग जा, तो वह तुम्हारी मान लेता।

उत्तम सेवक

7 “पर तुम में से ऐसा कौन है, जिसका दास हल जोतता, या भेड़ें चराता हो, और जब वह खेत से आए, तो उससे कहे, ‘तुरन्त आकर भोजन करने बैठ’?

8 क्या वह उनसे न कहेगा, कि मेरा खाना तैयार कर: और जब तक मैं खाऊँ-पीऊँ तब तक कमर बाँधकर मेरी सेवा कर; इसके बाद तू भी खा पी लेना?

9 क्या वह उस दास का एहसान मानेगा, कि उसने वे ही काम किए जिसकी आज्ञा दी गई थी?

10 इसी रीति से तुम भी, जब उन सब कामों को कर चुके हो जिसकी आज्ञा तुम्हें दी गई थी, तो कहो, ‘हम निकम्मे दास हैं; कि जो हमें करना चाहिए था वही किया है।’”

एक कोढ़ी का आभार

11 और ऐसा हुआ कि वह यरूशलेम को जाते हुए सामरिया और गलील प्रदेश की सीमा से होकर जा रहा था।

12 और किसी गाँव में प्रवेश करते समय उसे दस कोढ़ी मिले। (लैव्य. 13:46)

13 और उन्होंने दूर खड़े होकर, ऊँचे शब्द से कहा, “हे यीशु, हे स्वामी, हम पर दया कर!”

14 उसने उन्हें देखकर कहा, “जाओ; और अपने आपको याजकों को दिखाओ।” और जाते ही जाते वे शुद्ध हो गए। (लैव्य. 14:2,3)

15 तब उनमें से एक यह देखकर कि मैं चंगा हो गया हूँ, ऊँचे शब्द से परमेश्वर की बड़ाई करता हुआ लौटा;

16 और यीशु के पाँवों पर मुँह के बल गिरकर उसका धन्यवाद करने लगा; और वह सामरी था।

17 इस पर यीशु ने कहा, “क्या दसों शुद्ध न हुए, तो फिर वे नौ कहाँ हैं?

18 क्या इस परदेशी को छोड़ कोई और न निकला, जो परमेश्वर की बड़ाई करता?”

19 तब उसने उससे कहा, “उठकर चला जा; तेरे विश्वास ने तुझे चंगा किया है।”

परमेश्वर के राज्य का प्रगट होना

20 जब फरीसियों ने उससे पूछा, कि परमेश्वर का राज्य कब आएगा? तो उसने उनको उत्तर दिया, “परमेश्वर का राज्य प्रगट रूप में नहीं आता।

21 और लोग यह न कहेंगे, कि देखो, यहाँ है, या वहाँ है। क्योंकि, परमेश्वर का राज्य तुम्हारे बीच में है।”

22 और उसने चेलों से कहा, “वे दिन आएँगे, जिनमें तुम मनुष्य के पुत्र के दिनों में से एक दिन को देखना चाहोगे, और नहीं देखने पाओगे।

23 लोग तुम से कहेंगे, ‘देखो, वहाँ है!’ या ‘देखो यहाँ है!’ परन्तु तुम चले न जाना और न उनके पीछे हो लेना।

24 क्योंकि जैसे बिजली आकाश की एक छोर से कौंधकर आकाश की दूसरी छोर तक चमकती है, वैसे ही मनुष्य का पुत्र भी अपने दिन में प्रगट होगा।

25 परन्तु पहले अवश्य है, कि वह बहुत दुःख उठाए, और इस युग के लोग उसे तुच्छ ठहराएँ।

26 जैसा नूह के दिनों में हुआ था, वैसा ही मनुष्य के पुत्र के दिनों में भी होगा। (इब्रा. 4:7, मत्ती 24:37-39, उत्प. 6:5-12)

27 जिस दिन तक नूह जहाज पर न चढ़ा, उस दिन तक लोग खाते-पीते थे, और उनमें विवाह-शादी होती थी; तब जल-प्रलय ने आकर उन सब को नाश किया।

28 और जैसा लूत के दिनों में हुआ था, कि लोग खाते-पीते लेन-देन करते, पेड़ लगाते और घर बनाते थे;

29 परन्तु जिस दिन लूत सदोम से निकला, उस दिन आग और गन्धक आकाश से बरसी और सब को नाश कर दिया। (2 पत. 2:6, यहू. 1:7, उत्प. 19:24)

30 मनुष्य के पुत्र के प्रगट होने के दिन भी ऐसा ही होगा।

31 “उस दिन जो छत पर हो; और उसका सामान घर में हो, वह उसे लेने को न उतरे, और वैसे ही जो खेत में हो वह पीछे न लौटे।

32 लूत की पत्नी को स्मरण रखो! (उत्प. 19:26, उत्प. 19:17)

33 जो कोई अपना प्राण बचाना चाहे वह उसे खोएगा, और जो कोई उसे खोए वह उसे बचाएगा।

34 मैं तुम से कहता हूँ, उस रात दो मनुष्य एक खाट पर होंगे, एक ले लिया जाएगा, और दूसरा छोड़ दिया जाएगा।

35 दो स्त्रियाँ एक साथ चक्की पीसती होंगी, एक ले ली जाएगी, और दूसरी छोड़ दी जाएगी।

36 [दो जन खेत में होंगे एक ले लिया जाएगा और दूसरा छोड़ा जाएगा।]”

37 यह सुन उन्होंने उससे पूछा, “हे प्रभु यह कहाँ होगा?” उसने उनसे कहा, “जहाँ लाश हैं, वहाँ गिद्ध इकट्ठे होंगे।” (अय्यू. 39:30)

विधवा और अधर्मी न्यायाधीश

18  1 फिर उसने इसके विषय में कि नित्य प्रार्थना करना और साहस नहीं छोड़ना चाहिए उनसे यह दृष्टान्त कहा:

2 “किसी नगर में एक न्यायी रहता था; जो न परमेश्वर से डरता था और न किसी मनुष्य की परवाह करता था।

3 और उसी नगर में एक विधवा भी रहती थी: जो उसके पास आ आकर कहा करती थी, ‘मेरा न्याय चुकाकर मुझे मुद्दई से बचा।’

4 उसने कितने समय तक तो न माना परन्तु अन्त में मन में विचार कर कहा, ‘यद्यपि मैं न परमेश्वर से डरता, और न मनुष्यों की कुछ परवाह करता हूँ;

5 फिर भी यह विधवा मुझे सताती रहती है, इसलिए मैं उसका न्याय चुकाऊँगा, कहीं ऐसा न हो कि घड़ी-घड़ी आकर अन्त को मेरी नाक में दम करे।’”

6 प्रभु ने कहा, “सुनो, कि यह अधर्मी न्यायी क्या कहता है?

7 अतः क्या परमेश्वर अपने चुने हुओं का न्याय न चुकाएगा, जो रात-दिन उसकी दुहाई देते रहते; और क्या वह उनके विषय में देर करेगा?

8 मैं तुम से कहता हूँ; वह तुरन्त उनका न्याय चुकाएगा; पर मनुष्य का पुत्र जब आएगा, तो क्या वह पृथ्वी पर विश्वास पाएगा?”

कौन धर्मी ठहराया जाएगा?

9 और उसने उनसे जो अपने ऊपर भरोसा रखते थे, कि हम धर्मी हैं, और दूसरों को तुच्छ जानते थे, यह दृष्टान्त कहा:

10 “दो मनुष्य मन्दिर में प्रार्थना करने के लिये गए; एक फरीसी था और दूसरा चुंगी लेनेवाला।

11 फरीसी खड़ा होकर अपने मन में यह प्रार्थना करने लगा, ‘हे परमेश्वर, मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ, कि मैं और मनुष्यों के समान दुष्टता करनेवाला, अन्यायी और व्यभिचारी नहीं, और न इस चुंगी लेनेवाले के समान हूँ।

12 मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूँ; मैं अपनी सब कमाई का दसवाँ अंश भी देता हूँ।’

13 “परन्तु चुंगी लेनेवाले ने दूर खड़े होकर, स्वर्ग की ओर आँख उठाना भी न चाहा, वरन् अपनी \+wjछाती पीट-पीट कर[fn] \+wj* कहा, ‘हे परमेश्वर मुझ पापी पर दया कर!’ (भज. 51:1)

14 मैं तुम से कहता हूँ, कि वह दूसरा नहीं; परन्तु यही मनुष्य \+wjधर्मी ठहरा[fn] \+wj* और अपने घर गया; क्योंकि जो कोई अपने आपको बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा; और जो अपने आपको छोटा बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा।”

परमेश्वर का राज्य बच्चों के समान

15 फिर लोग अपने बच्चों को भी उसके पास लाने लगे, कि वह उन पर हाथ रखे; और चेलों ने देखकर उन्हें डाँटा।

16 यीशु ने बच्चों को पास बुलाकर कहा, “बालकों को मेरे पास आने दो, और उन्हें मना न करो: क्योंकि परमेश्वर का राज्य ऐसों ही का है।

17 मैं तुम से सच कहता हूँ, कि जो कोई परमेश्वर के राज्य को बालक के समान ग्रहण न करेगा वह उसमें कभी प्रवेश करने न पाएगा।”

एक धनी का यीशु से प्रश्न

18 किसी सरदार ने उससे पूछा, “हे उत्तम गुरु, अनन्त जीवन का अधिकारी होने के लिये मैं क्या करूँ?”

19 यीशु ने उससे कहा, “तू मुझे उत्तम क्यों कहता है? कोई उत्तम नहीं, केवल एक, अर्थात् परमेश्वर।

20 तू आज्ञाओं को तो जानता है: ‘व्यभिचार न करना, हत्या न करना, चोरी न करना, झूठी गवाही न देना, अपने पिता और अपनी माता का आदर करना।’”

21 उसने कहा, “मैं तो इन सब को लड़कपन ही से मानता आया हूँ।”

22 यह सुन, “यीशु ने उससे कहा, तुझ में अब भी एक बात की घटी है, अपना सब कुछ बेचकर कंगालों को बाँट दे; और तुझे स्वर्ग में धन मिलेगा, और आकर मेरे पीछे हो ले।”

23 वह यह सुनकर बहुत उदास हुआ, क्योंकि वह बड़ा धनी था।

24 यीशु ने उसे देखकर कहा, “धनवानों का परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना कितना कठिन है!

25 परमेश्वर के राज्य में धनवान के प्रवेश करने से ऊँट का सूई के नाके में से निकल जाना सहज है।”

26 और सुननेवालों ने कहा, “तो फिर किसका उद्धार हो सकता है?”

27 उसने कहा, “जो मनुष्य से नहीं हो सकता, वह परमेश्वर से हो सकता है।”

28 पतरस ने कहा, “देख, हम तो घर-बार छोड़कर तेरे पीछे हो लिये हैं।”

29 उसने उनसे कहा, “मैं तुम से सच कहता हूँ, कि ऐसा कोई नहीं जिसने परमेश्वर के राज्य के लिये घर, या पत्नी, या भाइयों, या माता-पिता, या बाल-बच्चों को छोड़ दिया हो।

30 और इस समय कई गुणा अधिक न पाए; और परलोक में अनन्त जीवन।”

पुनरुत्थान की भविष्यद्वाणी

31 फिर उसने बारहों को साथ लेकर उनसे कहा, “हम यरूशलेम को जाते हैं, और \+wjजितनी बातें मनुष्य के पुत्र के लिये भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा लिखी गई हैं[fn] \+wj* वे सब पूरी होंगी।

32 क्योंकि वह अन्यजातियों के हाथ में सौंपा जाएगा, और वे उसका उपहास करेंगे; और उसका अपमान करेंगे, और उस पर थूकेंगे।

33 और उसे कोड़े मारेंगे, और मार डालेंगे, और वह तीसरे दिन जी उठेगा।”

34 और उन्होंने इन बातों में से कोई बात न समझी और यह बात उनसे छिपी रही, और जो कहा गया था वह उनकी समझ में न आया।

अंधे भिखारी को आँखें

35 जब वह यरीहो के निकट पहुँचा, तो एक अंधा सड़क के किनारे बैठा हुआ भीख माँग रहा था।

36 और वह भीड़ के चलने की आहट सुनकर पूछने लगा, “यह क्या हो रहा है?”

37 उन्होंने उसको बताया, “यीशु नासरी जा रहा है।”

38 तब उसने पुकारके कहा, “हे यीशु, दाऊद की सन्तान, मुझ पर दया कर!”

39 जो आगे-आगे जा रहे थे, वे उसे डाँटने लगे कि चुप रहे परन्तु वह और भी चिल्लाने लगा, “हे दाऊद की सन्तान, मुझ पर दया कर!”

40 तब यीशु ने खड़े होकर आज्ञा दी कि उसे मेरे पास लाओ, और जब वह निकट आया, तो उसने उससे यह पूछा,

41 तू क्या चाहता है, “मैं तेरे लिये करूँ?” उसने कहा, “हे प्रभु, यह कि मैं देखने लगूँ।”

42 यीशु ने उससे कहा, “देखने लग, तेरे विश्वास ने तुझे अच्छा कर दिया है।”

43 और वह तुरन्त देखने लगा; और परमेश्वर की बड़ाई करता हुआ, उसके पीछे हो लिया, और सब लोगों ने देखकर परमेश्वर की स्तुति की।

जक्कई के घर यीशु

19  1 वह यरीहो में प्रवेश करके जा रहा था।

2 वहाँ जक्कई[fn] नामक एक मनुष्य था, जो चुंगी लेनेवालों का सरदार और धनी था।

3 वह यीशु को देखना चाहता था कि वह कौन सा है? परन्तु भीड़ के कारण देख न सकता था। क्योंकि वह नाटा था।

4 तब उसको देखने के लिये वह आगे दौड़कर एक गूलर के पेड़ पर चढ़ गया, क्योंकि यीशु उसी मार्ग से जानेवाला था।

5 जब यीशु उस जगह पहुँचा, तो ऊपर दृष्टि करके उससे कहा, “हे जक्कई, झट उतर आ; क्योंकि आज मुझे तेरे घर में रहना अवश्य है।”

6 वह तुरन्त उतरकर आनन्द से उसे अपने घर को ले गया।

7 यह देखकर सब लोग कुढ़कुढ़ाकर कहने लगे, “वह तो एक पापी मनुष्य के यहाँ गया है।”

8 जक्कई ने खड़े होकर प्रभु से कहा, “हे प्रभु, देख, मैं अपनी आधी सम्पत्ति कंगालों को देता हूँ, और यदि किसी का कुछ भी अन्याय करके ले लिया है तो उसे चौगुना फेर देता हूँ।” (निर्ग. 22:1)

9 तब यीशु ने उससे कहा, “आज इस घर में उद्धार आया है, इसलिए कि यह भी \+wjअब्राहम का एक पुत्र[fn] \+wj* है।

10 क्योंकि मनुष्य का पुत्र खोए हुओं को ढूँढ़ने और उनका उद्धार करने आया है।” (मत्ती 15:24, यहे. 34:16)

दस मुहरें

11 जब वे ये बातें सुन रहे थे, तो उसने एक दृष्टान्त कहा, इसलिए कि वह यरूशलेम के निकट था, और वे समझते थे, कि परमेश्वर का राज्य अभी प्रगट होनेवाला है।

12 अतः उसने कहा, “एक धनी मनुष्य दूर देश को चला ताकि राजपद पाकर लौट आए।

13 और उसने अपने दासों में से दस को बुलाकर उन्हें दस मुहरें दीं, और उनसे कहा, ‘मेरे लौट आने तक लेन-देन करना।’

14 “परन्तु उसके नगर के रहनेवाले उससे बैर रखते थे, और उसके पीछे दूतों के द्वारा कहला भेजा, कि हम नहीं चाहते, कि यह हम पर राज्य करे।

15 “जब वह राजपद पाकर लौट आया, तो ऐसा हुआ कि उसने अपने दासों को जिन्हें रोकड़ दी थी, अपने पास बुलवाया ताकि मालूम करे कि उन्होंने लेन-देन से क्या-क्या कमाया।

16 तब पहले ने आकर कहा, ‘हे स्वामी, तेरे मुहर से दस और मुहरें कमाई हैं।’

17 उसने उससे कहा, ‘हे उत्तम दास, तू धन्य है, तू बहुत ही थोड़े में विश्वासयोग्य निकला अब दस नगरों का अधिकार रख।’

18 दूसरे ने आकर कहा, ‘हे स्वामी, तेरी मुहर से पाँच और मुहरें कमाई हैं।’

19 उसने उससे कहा, ‘तू भी पाँच नगरों पर अधिकार रख।’

20 तीसरे ने आकर कहा, ‘हे स्वामी, देख, तेरी मुहर यह है, जिसे मैंने अँगोछे में बाँध रखा था।

21 क्योंकि मैं तुझ से डरता था, इसलिए कि तू कठोर मनुष्य है: जो तूने नहीं रखा उसे उठा लेता है, और जो तूने नहीं बोया, उसे काटता है।’

22 उसने उससे कहा, ‘हे दुष्ट दास, मैं \+wjतेरे ही मुँह से[fn] \+wj* तुझे दोषी ठहराता हूँ। तू मुझे जानता था कि कठोर मनुष्य हूँ, जो मैंने नहीं रखा उसे उठा लेता, और जो मैंने नहीं बोया, उसे काटता हूँ;

23 तो तूने मेरे रुपये सर्राफों को क्यों नहीं रख दिए, कि मैं आकर ब्याज समेत ले लेता?’

24 और जो लोग निकट खड़े थे, उसने उनसे कहा, ‘वह मुहर उससे ले लो, और जिसके पास दस मुहरें हैं उसे दे दो।’

25 उन्होंने उससे कहा, ‘हे स्वामी, उसके पास दस मुहरें तो हैं।’

26 ‘मैं तुम से कहता हूँ, कि जिसके पास है, उसे और दिया जाएगा; और जिसके पास नहीं, उससे वह भी जो उसके पास है ले लिया जाएगा।

27 परन्तु मेरे उन बैरियों को जो नहीं चाहते थे कि मैं उन पर राज्य करूँ, उनको यहाँ लाकर मेरे सामने मार डालो।’”

यरूशलेम में विजय प्रवेश

28 ये बातें कहकर वह यरूशलेम की ओर उनके आगे-आगे चला।

29 और जब वह जैतून नाम पहाड़ पर बैतफगे और बैतनिय्याह के पास पहुँचा, तो उसने अपने चेलों में से दो को यह कहकर भेजा,

30 “सामने के गाँव में जाओ, और उसमें पहुँचते ही एक गदही का बच्चा जिस पर कभी कोई सवार नहीं हुआ, बन्धा हुआ तुम्हें मिलेगा, उसे खोलकर लाओ।

31 और यदि कोई तुम से पूछे, कि क्यों खोलते हो, तो यह कह देना, कि प्रभु को इसकी जरूरत है।”

32 जो भेजे गए थे, उन्होंने जाकर जैसा उसने उनसे कहा था, वैसा ही पाया।

33 जब वे गदहे के बच्चे को खोल रहे थे, तो उसके मालिकों ने उनसे पूछा, “इस बच्चे को क्यों खोलते हो?”

34 उन्होंने कहा, “प्रभु को इसकी जरूरत है।”

35 वे उसको यीशु के पास ले आए और अपने कपड़े उस बच्चे पर डालकर यीशु को उस पर बैठा दिया।

36 जब वह जा रहा था, तो वे अपने कपड़े मार्ग में बिछाते जाते थे। (2 राजा. 9:13)

37 और निकट आते हुए जब वह जैतून पहाड़ की ढलान पर पहुँचा, तो चेलों की सारी मण्डली उन सब सामर्थ्य के कामों के कारण जो उन्होंने देखे थे, आनन्दित होकर बड़े शब्द से परमेश्वर की स्तुति करने लगी: (जक. 9:9)

38 “धन्य है वह राजा, जो प्रभु के नाम से आता है!

स्वर्ग में शान्ति और आकाश में महिमा हो!” (भज. 72:18-19, भज. 118:26)

39 तब भीड़ में से कितने फरीसी उससे कहने लगे, “हे गुरु, अपने चेलों को डाँट।”

40 उसने उत्तर दिया, “मैं तुम में से कहता हूँ, यदि ये चुप रहें, तो पत्थर चिल्ला उठेंगे।”

यरूशलेम के लिये विलाप

41 जब वह निकट आया तो नगर को देखकर उस पर रोया[fn]

42 और कहा, “क्या ही भला होता, कि तू; हाँ, तू ही, इसी दिन में कुशल की बातें जानता, परन्तु अब वे तेरी आँखों से छिप गई हैं। (व्यव. 32:29, यशा. 6:9,10)

43 क्योंकि वे दिन तुझ पर आएँगे कि तेरे बैरी मोर्चा बाँधकर तुझे घेर लेंगे, और चारों ओर से तुझे दबाएँगे।

44 और तुझे और तेरे साथ तेरे बालकों को, मिट्टी में मिलाएँगे, और तुझ में पत्थर पर पत्थर भी न छोड़ेंगे; क्योंकि तूने वह अवसर जब तुझ पर कृपादृष्‍टि की गई न पहचाना।”

मन्दिर की सफाई

45 तब वह मन्दिर में जाकर बेचनेवालों को बाहर निकालने लगा।

46 और उनसे कहा, “लिखा है; ‘मेरा घर प्रार्थना का घर होगा,’ परन्तु तुम ने उसे डाकुओं की खोह बना दिया है।” (यशा. 56:7, यिर्म. 7:11)

47 और वह प्रतिदिन मन्दिर में उपदेश देता था: और प्रधान याजक और शास्त्री और लोगों के प्रमुख उसे मार डालने का अवसर ढूँढ़ते थे।

48 परन्तु कोई उपाय न निकाल सके; कि यह किस प्रकार करें, क्योंकि सब लोग बड़ी चाह से उसकी सुनते थे।

यहूदियों द्वारा यीशु से प्रश्न

20  1 एक दिन ऐसा हुआ कि जब वह मन्दिर में लोगों को उपदेश देता और सुसमाचार सुना रहा था, तो प्रधान याजक और शास्त्री, प्राचीनों के साथ पास आकर खड़े हुए।

2 और कहने लगे, “हमें बता, तू इन कामों को किस अधिकार से करता है, और वह कौन है, जिसने तुझे यह अधिकार दिया है?”

3 उसने उनको उत्तर दिया, “मैं भी तुम से एक बात पूछता हूँ; मुझे बताओ

4 यूहन्ना का बपतिस्मा स्वर्ग की ओर से था या मनुष्यों की ओर से था?”

5 तब वे आपस में कहने लगे, “यदि हम कहें, ‘स्वर्ग की ओर से,’ तो वह कहेगा; ‘फिर तुम ने उस पर विश्वास क्यों नहीं किया?’

6 और यदि हम कहें, ‘मनुष्यों की ओर से,’ तो सब लोग हमें पत्थराव करेंगे, क्योंकि वे सचमुच जानते हैं, कि यूहन्ना भविष्यद्वक्ता था।”

7 अतः उन्होंने उत्तर दिया, “हम नहीं जानते, कि वह किसकी ओर से था।”

8 यीशु ने उनसे कहा, “तो मैं भी तुम्हें नहीं बताता कि मैं ये काम किस अधिकार से करता हूँ।”

दुष्ट किसानों का दृष्टान्त

9 तब वह लोगों से यह दृष्टान्त कहने लगा, “किसी मनुष्य ने दाख की बारी लगाई, और किसानों को उसका ठेका दे दिया और बहुत दिनों के लिये परदेश चला गया। (मर. 12:1-12, मत्ती 21:33-46)

10 नियुक्त समय पर उसने किसानों के पास एक दास को भेजा, कि वे दाख की बारी के कुछ फलों का भाग उसे दें, पर किसानों ने उसे पीट कर खाली हाथ लौटा दिया।

11 फिर उसने एक और दास को भेजा, ओर उन्होंने उसे भी पीट कर और उसका अपमान करके खाली हाथ लौटा दिया।

12 फिर उसने तीसरा भेजा, और उन्होंने उसे भी घायल करके निकाल दिया।

13 तब दाख की बारी के स्वामी ने कहा, ‘मैं क्या करूँ? मैं अपने प्रिय पुत्र को भेजूँगा, क्या जाने वे उसका आदर करें।’

14 जब किसानों ने उसे देखा तो आपस में विचार करने लगे, ‘यह तो वारिस है; आओ, हम उसे मार डालें, कि विरासत हमारी हो जाए।’

15 और उन्होंने उसे दाख की बारी से बाहर निकालकर मार डाला: इसलिए दाख की बारी का स्वामी उनके साथ क्या करेगा?

16 वह आकर उन किसानों को नाश करेगा, और दाख की बारी दूसरों को सौंपेगा।” यह सुनकर उन्होंने कहा, “परमेश्वर ऐसा न करे।”

17 उसने उनकी ओर देखकर कहा,

“फिर यह क्या लिखा है: ‘जिस पत्थर को राजमिस्त्रियों ने निकम्मा ठहराया था, वही कोने का सिरा हो गया।’ (भज. 118:22,23)

18 जो कोई उस पत्थर पर गिरेगा वह \+wjचकनाचूर हो जाएगा[fn] \+wj* , और जिस पर वह गिरेगा, उसको पीस डालेगा।” (दानि. 2:34,35)

शास्त्रियों और प्रधान याजकों की चाल

19 उसी घड़ी शास्त्रियों और प्रधान याजकों ने उसे पकड़ना चाहा, क्योंकि समझ गए थे, कि उसने उनके विरुद्ध दृष्टान्त कहा, परन्तु वे लोगों से डरे।

20 और वे उसकी ताक में लगे और भेदिए भेजे, कि धर्मी का भेष धरकर उसकी कोई न कोई बात पकड़ें, कि उसे राज्यपाल के हाथ और अधिकार में सौंप दें।

21 उन्होंने उससे यह पूछा, “हे गुरु, हम जानते हैं कि तू ठीक कहता, और सिखाता भी है, और किसी का पक्षपात नहीं करता; वरन् परमेश्वर का मार्ग सच्चाई से बताता है।

22 क्या हमें कैसर को कर देना उचित है, कि नहीं?”

23 उसने उनकी चतुराई को ताड़कर उनसे कहा,

24 “एक दीनार मुझे दिखाओ। इस पर किसकी छाप और नाम है?” उन्होंने कहा, “कैसर का।”

25 उसने उनसे कहा, “तो जो कैसर का है, वह कैसर को दो और जो परमेश्वर का है, वह परमेश्वर को दो।”

26 वे लोगों के सामने उस बात को पकड़ न सके, वरन् उसके उत्तर से अचम्भित होकर चुप रह गए।

पुनरुत्थान और विवाह

27 फिर सदूकी जो कहते हैं, कि मरे हुओं का जी उठना है ही नहीं, उनमें से कुछ ने उसके पास आकर पूछा।

28 “हे गुरु, मूसा ने हमारे लिये यह लिखा है, ‘यदि किसी का भाई अपनी पत्नी के रहते हुए बिना सन्तान मर जाए, तो उसका भाई उसकी पत्नी से विवाह कर ले, और अपने भाई के लिये वंश उत्पन्न करे।’ (उत्प. 38:8, व्यव. 25:5)

29 अतः सात भाई थे, पहला भाई विवाह करके बिना सन्तान मर गया।

30 फिर दूसरे,

31 और तीसरे ने भी उस स्त्री से विवाह कर लिया। इसी रीति से सातों बिना सन्तान मर गए।

32 सब के पीछे वह स्त्री भी मर गई।

33 अतः जी उठने पर वह उनमें से किसकी पत्नी होगी, क्योंकि वह सातों की पत्नी रह चुकी थी।”

34 यीशु ने उनसे कहा, “इस युग के सन्तानों में तो विवाह-शादी होती है,

35 पर जो लोग इस योग्य ठहरेंगे, की उस युग को और मरे हुओं में से जी उठना प्राप्त करें, उनमें विवाह-शादी न होगी।

36 वे फिर मरने के भी नहीं; क्योंकि वे स्वर्गदूतों के समान होंगे, और पुनरुत्थान की सन्तान होने से परमेश्वर के भी सन्तान होंगे।

37 परन्तु इस बात को कि मरे हुए जी उठते हैं, मूसा ने भी झाड़ी की कथा में प्रगट की है, वह प्रभु को ‘अब्राहम का परमेश्वर, और इसहाक का परमेश्वर, और याकूब का परमेश्वर’ कहता है। (निर्ग. 3:2, निर्ग. 3:6)

38 परमेश्वर तो मुर्दों का नहीं परन्तु जीवितों का परमेश्वर है: क्योंकि उसके निकट सब जीवित हैं।”

39 तब यह सुनकर शास्त्रियों में से कितनों ने कहा, “हे गुरु, तूने अच्छा कहा।”

40 और उन्हें फिर उससे कुछ और पूछने का साहस न हुआ[fn]

मसीह दाऊद का पुत्र या दाऊद का प्रभु है?

41 फिर उसने उनसे पूछा, “मसीह को दाऊद की सन्तान कैसे कहते हैं?

42 दाऊद आप भजन संहिता की पुस्तक में कहता है:

‘प्रभु ने मेरे प्रभु से कहा,

43 मेरे दाहिने बैठ,

जब तक कि मैं तेरे बैरियों को तेरे पाँवों तले की चौकी न कर दूँ।’

44 दाऊद तो उसे प्रभु कहता है; तो फिर वह उसकी सन्तान कैसे ठहरा?”

शास्त्रियों के विरुद्ध यीशु की चेतावनी

45 जब सब लोग सुन रहे थे, तो उसने अपने चेलों से कहा।

46 \+wjशास्त्रियों से सावधान रहो[fn] \+wj* , जिनको लम्बे-लम्बे वस्त्र पहने हुए फिरना अच्छा लगता है, और जिन्हें बाजारों में नमस्कार, और आराधनालयों में मुख्य आसन और भोज में मुख्य स्थान प्रिय लगते हैं।

47 वे विधवाओं के घर खा जाते हैं, और दिखाने के लिये बड़ी देर तक प्रार्थना करते रहते हैं, ये बहुत ही दण्ड पाएँगे।”

कंगाल विधवा का सच्चा दान

21  1 फिर उसने आँख उठाकर धनवानों को अपना-अपना दान भण्डार में डालते हुए देखा।

2 और उसने एक कंगाल विधवा को भी उसमें दो दमड़ियाँ डालते हुए देखा।

3 तब उसने कहा, “मैं तुम से सच कहता हूँ कि इस कंगाल विधवा ने सबसे बढ़कर डाला है।

4 क्योंकि उन सब ने अपनी-अपनी बढ़ती में से दान में कुछ डाला है, परन्तु इसने अपनी घटी में से अपनी सारी जीविका डाल दी है।”

युग के अन्त के लक्षण

5 जब कितने लोग मन्दिर के विषय में कह रहे थे, कि वह कैसे सुन्दर पत्थरों और भेंट[fn] की वस्तुओं से संवारा गया है, तो उसने कहा,

6 “वे दिन आएँगे, जिनमें यह सब जो तुम देखते हो, उनमें से यहाँ किसी पत्थर पर पत्थर भी न छूटेगा, जो ढाया न जाएगा।”

7 उन्होंने उससे पूछा, “हे गुरु, यह सब कब होगा? और ये बातें जब पूरी होने पर होंगी, तो उस समय का क्या चिन्ह होगा?”

8 उसने कहा, “सावधान रहो, कि भरमाए न जाओ, क्योंकि बहुत से मेरे नाम से आकर कहेंगे, कि मैं वही हूँ; और यह भी कि समय निकट आ पहुँचा है: तुम उनके पीछे न चले जाना। (1 यूह. 4:1, मर. 13:21,23)

9 और जब तुम लड़ाइयों और बलवों की चर्चा सुनो, तो घबरा न जाना; क्योंकि इनका पहले होना अवश्य है; परन्तु उस समय तुरन्त अन्त न होगा।”

10 तब उसने उनसे कहा, “जाति पर जाति और राज्य पर राज्य चढ़ाई करेगा। (2 इति. 15:5,6, यशा. 19:2)

11 और बड़े-बड़े भूकम्प होंगे, और जगह-जगह अकाल और महामारियाँ पड़ेंगी, और आकाश में भयंकर बातें और बड़े-बड़े चिन्ह प्रगट होंगे।

12 परन्तु इन सब बातों से पहले वे मेरे नाम के कारण तुम्हें पकड़ेंगे, और सताएँगे, और आराधनालयों में सौंपेंगे, और बन्दीगृह में डलवाएँगे, और राजाओं और राज्यपालों के सामने ले जाएँगे।

13 पर यह तुम्हारे लिये गवाही देने का अवसर हो जाएगा।

14 इसलिए अपने-अपने मन में ठान रखो कि हम पहले से उत्तर देने की चिन्ता न करेंगे।

15 क्योंकि मैं तुम्हें ऐसा बोल और बुद्धि दूँगा, कि तुम्हारे सब विरोधी सामना या खण्डन न कर सकेंगे।

16 और तुम्हारे माता-पिता और भाई और कुटुम्ब, और मित्र भी तुम्हें पकड़वाएँगे; यहाँ तक कि तुम में से कितनों को मरवा डालेंगे।

17 और मेरे नाम के कारण सब लोग तुम से बैर करेंगे।

18 परन्तु \+wjतुम्हारे सिर का एक बाल भी बाँका न होगा[fn] \+wj* । (मत्ती 10:30, लूका 12:7)

19 “अपने धीरज से तुम अपने प्राणों को बचाए रखोगे।

यरूशलेम का नाश

20 “जब तुम यरूशलेम को सेनाओं से घिरा हुआ देखो, तो जान लेना कि उसका उजड़ जाना निकट है।

21 तब जो यहूदिया में हों वह पहाड़ों पर भाग जाएँ, और जो यरूशलेम के भीतर हों वे बाहर निकल जाएँ; और जो गाँवों में हो वे उसमें न जाएँ।

22 क्योंकि यह पलटा लेने के ऐसे दिन होंगे, जिनमें लिखी हुई सब बातें पूरी हो जाएँगी। (व्यव. 32:35, यिर्म. 46:10)

23 उन दिनों में जो गर्भवती और दूध पिलाती होंगी, उनके लिये हाय, हाय! क्योंकि देश में बड़ा क्लेश और इन लोगों पर बड़ी आपत्ति होगी।

24 वे तलवार के कौर हो जाएँगे, और सब देशों के लोगों में बन्धुए होकर पहुँचाए जाएँगे, और जब तक अन्यजातियों का समय पूरा न हो, तब तक यरूशलेम अन्यजातियों से रौंदा जाएगा। (एज्रा 9:7, भज. 79:1, यशा. 63:18, यिर्म. 21:7, दानि. 9:26)

यीशु के वापस आने का संकेत

25 “और सूरज और चाँद और तारों में चिन्ह दिखाई देंगे, और पृथ्वी पर, देश-देश के लोगों को संकट होगा; क्योंकि वे समुद्र के गरजने और लहरों के कोलाहल से घबरा जाएँगे। (भज. 46:2,3, भज. 65:7, यशा. 13:10, यशा. 24:19, यहे. 32:7, योए. 2:30)

26 और भय के कारण और संसार पर आनेवाली घटनाओं की बाँट देखते-देखते \+wjलोगों के जी में जी न रहेगा[fn] \+wj* क्योंकि आकाश की शक्तियाँ हिलाई जाएँगी। (लैव्य. 26:36, हाग्गै 2:6, हाग्गै 2:21)

27 तब वे मनुष्य के पुत्र को सामर्थ्य और बड़ी महिमा के साथ बादल पर आते देखेंगे। (प्रका. 1:7, दानि. 7:13)

28 जब ये बातें होने लगें, तो सीधे होकर अपने सिर ऊपर उठाना; क्योंकि तुम्हारा छुटकारा निकट होगा।”

परमेश्वर का राज्य निकट है

29 उसने उनसे एक दृष्टान्त भी कहा, “अंजीर के पेड़ और सब पेड़ों को देखो।

30 ज्यों ही उनकी कोंपलें निकलती हैं, तो तुम देखकर आप ही जान लेते हो, कि ग्रीष्मकाल निकट है।

31 इसी रीति से जब तुम ये बातें होते देखो, तब जान लो कि परमेश्वर का राज्य निकट है।

32 मैं तुम से सच कहता हूँ, कि जब तक ये सब बातें न हो लें, तब तक इस पीढ़ी का कदापि अन्त न होगा।

33 आकाश और पृथ्वी टल जाएँगे, परन्तु मेरी बातें कभी न टलेंगी।

सदा तैयार रहो

34 “इसलिए सावधान रहो, ऐसा न हो कि तुम्हारे मन खुमार और मतवालेपन, और इस जीवन की चिन्ताओं से सुस्त हो जाएँ, और वह दिन तुम पर फंदे के समान अचानक आ पड़े।

35 क्योंकि वह सारी पृथ्वी के सब रहनेवालों पर इसी प्रकार आ पड़ेगा। (प्रका. 3:3, लूका 12:40)

36 इसलिए जागते रहो और हर समय प्रार्थना करते रहो कि तुम इन सब आनेवाली घटनाओं से बचने, और \+wjमनुष्य के पुत्र के सामने खड़े[fn] \+wj* होने के योग्य बनो।”

37 और वह दिन को मन्दिर में उपदेश करता था; और रात को बाहर जाकर जैतून नाम पहाड़ पर रहा करता था।

38 और भोर को तड़के सब लोग उसकी सुनने के लिये मन्दिर में उसके पास आया करते थे।

यीशु की हत्या का षड्‍यंत्र

22  1 अख़मीरी रोटी का पर्व जो फसह कहलाता है, निकट था।

2 और प्रधान याजक और शास्त्री इस बात की खोज में थे कि उसको कैसे मार डालें, पर वे लोगों से डरते थे।

यहूदा इस्करियोती का विश्वासघात

3 और शैतान यहूदा में समाया[fn], जो इस्करियोती कहलाता और बारह चेलों में गिना जाता था।

4 उसने जाकर प्रधान याजकों और पहरुओं के सरदारों के साथ बातचीत की, कि उसको किस प्रकार उनके हाथ पकड़वाए।

5 वे आनन्दित हुए, और उसे रुपये देने का वचन दिया।

6 उसने मान लिया, और अवसर ढूँढ़ने लगा, कि बिना उपद्रव के उसे उनके हाथ पकड़वा दे।

फसह की तैयारी

7 तब अख़मीरी रोटी के पर्व का दिन आया, जिसमें फसह का मेम्ना बलि करना अवश्य था। (निर्ग. 12:3,6,8,14)

8 और यीशु ने पतरस और यूहन्ना को यह कहकर भेजा, “जाकर हमारे खाने के लिये फसह तैयार करो।”

9 उन्होंने उससे पूछा, “तू कहाँ चाहता है, कि हम तैयार करें?”

10 उसने उनसे कहा, “देखो, नगर में प्रवेश करते ही एक मनुष्य जल का घड़ा उठाए हुए तुम्हें मिलेगा, जिस घर में वह जाए; तुम उसके पीछे चले जाना,

11 और उस घर के स्वामी से कहो, ‘गुरु तुझ से कहता है; कि वह पाहुनशाला कहाँ है जिसमें मैं अपने चेलों के साथ फसह खाऊँ?’

12 वह तुम्हें एक सजी-सजाई बड़ी अटारी दिखा देगा; वहाँ तैयारी करना।

13 उन्होंने जाकर, जैसा उसने उनसे कहा था, वैसा ही पाया, और फसह तैयार किया।

प्रभु का अन्तिम भोज

14 जब घड़ी पहुँची, तो वह प्रेरितों के साथ भोजन करने बैठा।

15 और उसने उनसे कहा, “मुझे बड़ी लालसा थी, कि दुःख-भोगने से पहले यह फसह तुम्हारे साथ खाऊँ।

16 क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ, कि जब तक वह परमेश्वर के राज्य में पूरा न हो तब तक मैं उसे कभी न खाऊँगा।”

17 तब उसने कटोरा लेकर धन्यवाद किया और कहा, “इसको लो और आपस में बाँट लो।

18 क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ, कि जब तक परमेश्वर का राज्य न आए तब तक मैं दाखरस अब से कभी न पीऊँगा।”

19 फिर उसने रोटी ली, और धन्यवाद करके तोड़ी, और उनको यह कहते हुए दी, “यह मेरी देह है, जो तुम्हारे लिये दी जाती है: मेरे स्मरण के लिये यही किया करो।”

20 इसी रीति से उसने भोजन के बाद कटोरा भी यह कहते हुए दिया, “यह कटोरा मेरे उस लहू में जो तुम्हारे लिये बहाया जाता है नई वाचा है। (निर्ग. 24:8, 1 कुरि. 11:25, मत्ती 26:28, जक. 9:11)

21 पर देखो, मेरे पकड़वानेवाले का हाथ मेरे साथ मेज पर है। (भज. 41:9)

22 क्योंकि मनुष्य का पुत्र तो जैसा उसके लिये ठहराया गया, जाता ही है, पर हाय उस मनुष्य पर, जिसके द्वारा वह पकड़वाया जाता है!”

23 तब वे आपस में पूछ-ताछ करने लगे, “हम में से कौन है, जो यह काम करेगा?”

कौन बड़ा समझा जाएगा?

24 उनमें यह वाद-विवाद भी हुआ; कि हम में से कौन बड़ा समझा जाता है?

25 उसने उनसे कहा, “अन्यजातियों के राजा उन पर प्रभुता करते हैं; और जो उन पर अधिकार रखते हैं, वे \+wjउपकारक[fn] \+wj* कहलाते हैं।

26 परन्तु तुम ऐसे न होना; वरन् जो तुम में बड़ा है, वह छोटे के समान और जो प्रधान है, वह सेवक के समान बने।

27 क्योंकि बड़ा कौन है; वह जो भोजन पर बैठा या वह जो सेवा करता है? क्या वह नहीं जो भोजन पर बैठा है? पर मैं तुम्हारे बीच में सेवक के समान हूँ।

28 “परन्तु तुम वह हो, जो मेरी परीक्षाओं में लगातार मेरे साथ रहे;

29 और जैसे मेरे पिता ने मेरे लिये एक राज्य ठहराया है, वैसे ही मैं भी तुम्हारे लिये ठहराता हूँ।

30 ताकि तुम मेरे राज्य में मेरी मेज पर खाओ-पीओ; वरन् सिंहासनों पर बैठकर इस्राएल के बारह गोत्रों का न्याय करो।

पतरस के इन्कार की भविष्यद्वाणी

31 “शमौन, हे शमौन, शैतान ने तुम लोगों को माँग लिया है कि \+wjगेहूँ के समान फटके[fn] \+wj*

32 परन्तु मैंने तेरे लिये विनती की, कि तेरा विश्वास जाता न रहे और जब तू फिरे, तो अपने भाइयों को स्थिर करना।”

33 उसने उससे कहा, “हे प्रभु, मैं तेरे साथ बन्दीगृह जाने, वरन् मरने को भी तैयार हूँ।”

34 उसने कहा, “हे पतरस मैं तुझ से कहता हूँ, कि आज मुर्गा बाँग देगा जब तक तू तीन बार मेरा इन्कार न कर लेगा कि मैं उसे नहीं जानता।”

यातना सहने को तैयार रहो

35 और उसने उनसे कहा, “जब मैंने तुम्हें बटुए, और झोली, और जूते बिना भेजा था, तो क्या तुम को किसी वस्तु की घटी हुई थी?” उन्होंने कहा, “किसी वस्तु की नहीं।”

36 उसने उनसे कहा, “परन्तु अब जिसके पास बटुआ हो वह उसे ले, और वैसे ही झोली भी, और जिसके पास तलवार न हो वह अपने कपड़े बेचकर एक मोल ले।

37 क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ, कि यह जो लिखा है, ‘वह अपराधी के साथ गिना गया,’ उसका मुझ में पूरा होना अवश्य है; क्योंकि मेरे विषय की बातें पूरी होने पर हैं।” (गला. 3:13, 2 कुरि. 5:21, यशा. 53:12)

38 उन्होंने कहा, “हे प्रभु, देख, यहाँ दो तलवारें हैं।” उसने उनसे कहा, “बहुत हैं।”

जैतून के पहाड़ पर यीशु की प्रार्थना

39 तब वह बाहर निकलकर अपनी रीति के अनुसार जैतून के पहाड़ पर गया, और चेले उसके पीछे हो लिए।

40 उस जगह पहुँचकर उसने उनसे कहा, “प्रार्थना करो, कि तुम परीक्षा में न पड़ो।”

41 और वह आप उनसे अलग एक ढेला फेंकने की दूरी भर गया, और घुटने टेककर प्रार्थना करने लगा।

42 “हे पिता यदि तू चाहे तो इस कटोरे को मेरे पास से हटा ले, फिर भी मेरी नहीं परन्तु तेरी ही इच्छा पूरी हो।”

43 तब स्वर्ग से एक दूत उसको दिखाई दिया जो उसे सामर्थ्य देता था[fn]

44 और वह अत्यन्त संकट में व्याकुल होकर और भी हार्दिक वेदना से प्रार्थना करने लगा; और उसका पसीना मानो लहू की बड़ी-बड़ी बूँदों के समान भूमि पर गिर रहा था।

45 तब वह प्रार्थना से उठा और अपने चेलों के पास आकर उन्हें उदासी के मारे सोता पाया।

46 और उनसे कहा, “क्यों सोते हो? उठो, प्रार्थना करो, कि परीक्षा में न पड़ो।”

यीशु को बन्दी बनाना

47 वह यह कह ही रहा था, कि देखो एक भीड़ आई, और उन बारहों में से एक जिसका नाम यहूदा था उनके आगे-आगे आ रहा था, वह यीशु के पास आया, कि उसे चूम ले।

48 यीशु ने उससे कहा, “हे यहूदा, क्या तू चूमा लेकर मनुष्य के पुत्र को पकड़वाता है?”

49 उसके साथियों ने जब देखा कि क्या होनेवाला है, तो कहा, “हे प्रभु, क्या हम तलवार चलाएँ?”

50 और उनमें से एक ने महायाजक के दास पर तलवार चलाकर उसका दाहिना कान काट दिया।

51 इस पर यीशु ने कहा, “अब बस करो।” और उसका कान छूकर उसे अच्छा किया।

52 तब यीशु ने प्रधान याजकों और मन्दिर के पहरुओं के सरदारों और प्राचीनों से, जो उस पर चढ़ आए थे, कहा, “क्या तुम मुझे डाकू जानकर तलवारें और लाठियाँ लिए हुए निकले हो?

53 जब मैं मन्दिर में हर दिन तुम्हारे साथ था, तो तुम ने मुझ पर हाथ न डाला; पर यह तुम्हारी घड़ी है, और अंधकार का अधिकार है।”

पतरस का इन्कार

54 फिर वे उसे पकड़कर ले चले, और महायाजक के घर में लाए और पतरस दूर ही दूर उसके पीछे-पीछे चलता था।

55 और जब वे आँगन में आग सुलगाकर इकट्ठे बैठे, तो पतरस भी उनके बीच में बैठ गया।

56 और एक दासी उसे आग के उजियाले में बैठे देखकर और उसकी ओर ताक कर कहने लगी, “यह भी तो उसके साथ था।”

57 परन्तु उसने यह कहकर इन्कार किया, “हे नारी, मैं उसे नहीं जानता।”

58 थोड़ी देर बाद किसी और ने उसे देखकर कहा, “तू भी तो उन्हीं में से है।” पतरस ने कहा, “हे मनुष्य, मैं नहीं हूँ।”

59 कोई घंटे भर के बाद एक और मनुष्य दृढ़ता से कहने लगा, “निश्चय यह भी तो उसके साथ था; क्योंकि यह गलीली है।”

60 पतरस ने कहा, “हे मनुष्य, मैं नहीं जानता कि तू क्या कहता है?” वह कह ही रहा था कि तुरन्त मुर्गे ने बाँग दी।

61 तब प्रभु ने घूमकर पतरस की ओर देखा, और पतरस को प्रभु की वह बात याद आई जो उसने कही थी, “आज मुर्गे के बाँग देने से पहले, तू तीन बार मेरा इन्कार करेगा।”

62 और वह बाहर निकलकर फूट-फूटकर रोने लगा।

यीशु का उपहास

63 जो मनुष्य यीशु को पकड़े हुए थे, वे उसका उपहास करके पीटने लगे;

64 और उसकी आँखें ढाँपकर उससे पूछा, “भविष्यद्वाणी करके बता कि तुझे किसने मारा।”

65 और उन्होंने बहुत सी और भी निन्दा की बातें उसके विरोध में कहीं।

पुरनिए और महासभा के सामने यीशु

66 जब दिन हुआ तो लोगों के पुरनिए और प्रधान याजक और शास्त्री इकट्ठे हुए, और उसे अपनी महासभा में लाकर पूछा,

67 “यदि तू मसीह है, तो हम से कह दे!” उसने उनसे कहा, “यदि मैं तुम से कहूँ तो विश्वास न करोगे।

68 और यदि पूछूँ, तो उत्तर न दोगे।

69 परन्तु अब से मनुष्य का पुत्र सर्वशक्तिमान परमेश्वर की दाहिनी ओर बैठा रहेगा।” (मर. 14:62, भज. 110:1)

70 इस पर सब ने कहा, “तो क्या तू परमेश्वर का पुत्र है?” उसने उनसे कहा, “तुम आप ही कहते हो, क्योंकि मैं हूँ।”

71 तब उन्होंने कहा, “अब हमें गवाही की क्या आवश्यकता है; क्योंकि हमने आप ही उसके मुँह से सुन लिया है।”

पिलातुस द्वारा यीशु से प्रश्न

23  1 तब सारी सभा उठकर यीशु को पिलातुस के पास ले गई।

2 और वे यह कहकर उस पर दोष लगाने लगे, “हमने इसे लोगों को बहकाते और कैसर को कर देने से मना करते, और अपने आपको मसीह, राजा कहते हुए सुना है।”

3 पिलातुस ने उससे पूछा, “क्या तू यहूदियों का राजा है?” उसने उसे उत्तर दिया, “तू आप ही कह रहा है।”

4 तब पिलातुस ने प्रधान याजकों और लोगों से कहा, “मैं इस मनुष्य में कुछ दोष नहीं पाता।”

5 पर वे और भी दृढ़ता से कहने लगे, “यह गलील से लेकर यहाँ तक सारे यहूदिया में उपदेश दे देकर लोगों को भड़काता है।”

6 यह सुनकर पिलातुस ने पूछा, “क्या यह मनुष्य गलीली है?”

7 और यह जानकर कि वह हेरोदेस की रियासत[fn] का है, उसे हेरोदेस के पास भेज दिया, क्योंकि उन दिनों में वह भी यरूशलेम में था।

यीशु का हेरोदेस के पास भेजा जाना

8 हेरोदेस यीशु को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुआ, क्योंकि वह बहुत दिनों से उसको देखना चाहता था: इसलिए कि उसके विषय में सुना था, और उसका कुछ चिन्ह देखने की आशा रखता था।

9 वह उससे बहुत सारी बातें पूछता रहा, पर उसने उसको कुछ भी उत्तर न दिया।

10 और प्रधान याजक और शास्त्री खड़े हुए तन मन से उस पर दोष लगाते रहे।

11 तब हेरोदेस ने अपने सिपाहियों के साथ उसका अपमान करके उपहास किया, और भड़कीला वस्त्र पहनाकर उसे पिलातुस के पास लौटा दिया।

12 उसी दिन पिलातुस और हेरोदेस मित्र हो गए। इसके पहले वे एक दूसरे के बैरी थे।

पिलातुस द्वारा यीशु को मृत्युदण्ड

13 पिलातुस ने प्रधान याजकों और सरदारों और लोगों को बुलाकर उनसे कहा,

14 “तुम इस मनुष्य को लोगों का बहकानेवाला ठहराकर मेरे पास लाए हो, और देखो, मैंने तुम्हारे सामने उसकी जाँच की, पर जिन बातों का तुम उस पर दोष लगाते हो, उन बातों के विषय में मैंने उसमें कुछ भी दोष नहीं पाया है;

15 न हेरोदेस ने, क्योंकि उसने उसे हमारे पास लौटा दिया है: और देखो, उससे ऐसा कुछ नहीं हुआ कि वह मृत्यु के दण्ड के योग्य ठहराया जाए।

16 इसलिए मैं उसे पिटवाकर छोड़ देता हूँ।”

17 पिलातुस पर्व के समय उनके लिए एक बन्दी को छोड़ने पर विवश था।

18 तब सब मिलकर चिल्ला उठे, “इसका काम तमाम कर, और हमारे लिये बरअब्बा को छोड़ दे।”

19 वह किसी बलवे के कारण जो नगर में हुआ था, और हत्या के कारण बन्दीगृह में डाला गया था।

20 पर पिलातुस ने यीशु को छोड़ने की इच्छा से लोगों को फिर समझाया।

21 परन्तु उन्होंने चिल्लाकर कहा, “उसे क्रूस पर चढ़ा, क्रूस पर!”

22 उसने तीसरी बार उनसे कहा, “क्यों उसने कौन सी बुराई की है? मैंने उसमें मृत्युदण्ड के योग्य कोई बात नहीं पाई! इसलिए मैं उसे पिटवाकर छोड़ देता हूँ।”

23 परन्तु वे चिल्ला-चिल्लाकर पीछे पड़ गए, कि वह क्रूस पर चढ़ाया जाए, और उनका चिल्लाना प्रबल हुआ।

24 अतः पिलातुस ने आज्ञा दी, कि उनकी विनती के अनुसार किया जाए।

25 और उसने उस मनुष्य को जो बलवे और हत्या के कारण बन्दीगृह में डाला गया था, और जिसे वे माँगते थे, छोड़ दिया; और यीशु को उनकी इच्छा के अनुसार सौंप दिया।

यीशु का क्रूस पर चढ़ाया जाना

26 जब वे उसे लिए जा रहे थे, तो उन्होंने शमौन नाम एक कुरेनी को जो गाँव से आ रहा था, पकड़कर उस पर क्रूस को लाद दिया कि उसे यीशु के पीछे-पीछे ले चले।

27 और लोगों की बड़ी भीड़ उसके पीछे हो ली: और बहुत सारी स्त्रियाँ भी, जो उसके लिये छाती-पीटती और विलाप करती थीं।

28 यीशु ने उनकी ओर फिरकर कहा, “हे यरूशलेम की पुत्रियों, मेरे लिये मत रोओ; परन्तु अपने और अपने बालकों के लिये रोओ।

29 क्योंकि वे दिन आते हैं, जिनमें लोग कहेंगे, ‘धन्य हैं वे जो बाँझ हैं, और वे गर्भ जो न जने और वे स्तन जिन्होंने दूध न पिलाया।’

30 उस समय

‘वे पहाड़ों से कहने लगेंगे, कि हम पर गिरो,

और टीलों से कि हमें ढाँप लो।’

31 क्योंकि जब वे हरे पेड़ के साथ ऐसा करते हैं, तो सूखे के साथ क्या कुछ न किया जाएगा?”

32 वे और दो मनुष्यों को भी जो कुकर्मी थे उसके साथ मार डालने को ले चले।

33 जब वे उस जगह जिसे खोपड़ी कहते हैं पहुँचे, तो उन्होंने वहाँ उसे और उन कुकर्मियों को भी एक को दाहिनी और दूसरे को बाईं और क्रूसों पर चढ़ाया।

34 तब यीशु ने कहा, “\+wjहे पिता, इन्हें क्षमा कर[fn] \+wj* , क्योंकि ये जानते नहीं कि क्या कर रहें हैं?” और उन्होंने चिट्ठियाँ डालकर उसके कपड़े बाँट लिए। (1 पत. 3:9, प्रका. 7:60, यशा. 53:12, भज. 22:18)

35 लोग खड़े-खड़े देख रहे थे, और सरदार भी उपहास कर-करके कहते थे, “इसने औरों को बचाया, यदि यह परमेश्वर का मसीह है, और उसका चुना हुआ है, तो अपने आपको बचा ले।” (भज. 22:7)

36 सिपाही भी पास आकर और सिरका देकर उसका उपहास करके कहते थे। (भज. 69:21)

37 “यदि तू यहूदियों का राजा है, तो अपने आपको बचा!”

38 और उसके ऊपर एक दोषपत्र भी लगा था: “यह यहूदियों का राजा है।”

क्रूस पर मन फिराने वाला कुकर्मी

39 जो कुकर्मी लटकाए गए थे, उनमें से एक ने उसकी निन्दा करके कहा, “क्या तू मसीह नहीं? तो फिर अपने आपको और हमें बचा!”

40 इस पर दूसरे ने उसे डाँटकर कहा, “क्या तू परमेश्वर से भी नहीं डरता? तू भी तो वही दण्ड पा रहा है,

41 और हम तो न्यायानुसार दण्ड पा रहे हैं, क्योंकि हम अपने कामों का ठीक फल पा रहे हैं; पर इसने कोई अनुचित काम नहीं किया।”

42 तब उसने कहा, “हे यीशु, जब तू अपने राज्य में आए, तो मेरी सुधि लेना।”

43 उसने उससे कहा, “मैं तुझ से सच कहता हूँ कि आज ही तू मेरे साथ \+wjस्वर्गलोक[fn] \+wj* में होगा।”

यीशु का प्राण त्यागना

44 और लगभग दोपहर से तीसरे पहर तक सारे देश में अंधियारा छाया रहा,

45 और सूर्य का उजियाला जाता रहा, और मन्दिर का परदा बीच से फट गया, (आमो. 8:9; इब्रा. 10:19)

46 और यीशु ने बड़े शब्द से पुकारकर कहा, “हे पिता, मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूँ।” और यह कहकर प्राण छोड़ दिए।

47 सूबेदार ने, जो कुछ हुआ था देखकर परमेश्वर की बड़ाई की, और कहा, “निश्चय यह मनुष्य धर्मी था।”

48 और भीड़ जो यह देखने को इकट्ठी हुई थी, इस घटना को देखकर छाती पीटती हुई लौट गई।

49 और उसके सब जान-पहचान, और जो स्त्रियाँ गलील से उसके साथ आई थीं, दूर खड़ी हुई यह सब देख रही थीं। (भज. 38:11, भज. 88:8)

अरिमतियाह का यूसुफ के द्वारा यीशु को दफनाना

50 और वहाँ, यूसुफ नामक महासभा का एक सदस्य था, जो सज्जन और धर्मी पुरुष था।

51 और उनके विचार और उनके इस काम से प्रसन्न न था; और वह यहूदियों के नगर अरिमतियाह का रहनेवाला और परमेश्वर के राज्य की प्रतीक्षा करनेवाला था।

52 उसने पिलातुस के पास जाकर यीशु का शव माँगा,

53 और उसे उतारकर मलमल की चादर में लपेटा, और एक कब्र में रखा, जो चट्टान में खोदी हुई थी; और उसमें कोई कभी न रखा गया था।

54 वह तैयारी का दिन था, और सब्त का दिन आरम्भ होने पर था।

55 और उन स्त्रियों ने जो उसके साथ गलील से आई थीं, पीछे-पीछे, जाकर उस कब्र को देखा और यह भी कि उसका शव किस रीति से रखा गया हैं।

56 और लौटकर सुगन्धित वस्तुएँ और इत्र तैयार किया; और सब्त के दिन तो उन्होंने आज्ञा के अनुसार विश्राम किया। (निर्ग. 20:10, व्यव. 5:14)

यीशु का जी उठना

24  1 परन्तु सप्ताह के पहले दिन बड़े भोर को वे उन सुगन्धित वस्तुओं को जो उन्होंने तैयार की थी, लेकर कब्र पर आईं।

2 और उन्होंने पत्थर को कब्र पर से लुढ़का हुआ पाया,

3 और भीतर जाकर प्रभु यीशु का शव न पाया।

4 जब वे इस बात से भौचक्की हो रही थीं तब, दो पुरुष झलकते वस्त्र पहने हुए उनके पास आ खड़े हुए।

5 जब वे डर गईं, और धरती की ओर मुँह झुकाए रहीं; तो उन्होंने उनसे कहा, “तुम जीविते को मरे हुओं में क्यों ढूँढ़ती हो? (प्रका. 1:18, मर. 16:5,6)

6 वह यहाँ नहीं, परन्तु जी उठा है। स्मरण करो कि उसने गलील में रहते हुए तुम से कहा था,

7 ‘अवश्य है, कि मनुष्य का पुत्र पापियों के हाथ में पकड़वाया जाए, और क्रूस पर चढ़ाया जाए, और तीसरे दिन जी उठे।’”

8 तब उसकी बातें उनको स्मरण आईं,

9 और कब्र से लौटकर उन्होंने उन ग्यारहों को, और अन्य सब को, ये सब बातें कह सुनाई।

10 जिन्होंने प्रेरितों से ये बातें कहीं, वे मरियम मगदलीनी और योअन्ना और याकूब की माता मरियम और उनके साथ की अन्य स्त्रियाँ भी थीं।

11 परन्तु उनकी बातें उन्हें कहानी के समान लगी और उन्होंने उन पर विश्वास नहीं किया।

12 तब पतरस उठकर कब्र पर दौड़ा गया, और झुककर केवल कपड़े पड़े देखे, और जो हुआ था, उससे अचम्भा करता हुआ, अपने घर चला गया।

इम्माऊस के मार्ग पर चेलों को दर्शन

13 उसी दिन उनमें से दो जन इम्माऊस नामक एक गाँव को जा रहे थे, जो यरूशलेम से कोई सात मील की दूरी पर था।

14 और वे इन सब बातों पर जो हुईं थीं, आपस में बातचीत करते जा रहे थे।

15 और जब वे आपस में बातचीत और पूछ-ताछ कर रहे थे, तो यीशु आप पास आकर उनके साथ हो लिया।

16 परन्तु उनकी आँखें ऐसी बन्द कर दी गईं थी, कि उसे पहचान न सके[fn]

17 उसने उनसे पूछा, “ये क्या बातें हैं, जो तुम चलते-चलते आपस में करते हो?” वे उदास से खड़े रह गए।

18 यह सुनकर, उनमें से क्लियुपास नामक एक व्यक्ति ने कहा, “क्या तू यरूशलेम में अकेला परदेशी है; जो नहीं जानता, कि इन दिनों में उसमें क्या-क्या हुआ है?”

19 उसने उनसे पूछा, “कौन सी बातें?” उन्होंने उससे कहा, “यीशु नासरी के विषय में जो परमेश्वर और सब लोगों के निकट काम और वचन में सामर्थी भविष्यद्वक्ता[fn] था।

20 और प्रधान याजकों और हमारे सरदारों ने उसे पकड़वा दिया, कि उस पर मृत्यु की आज्ञा दी जाए; और उसे क्रूस पर चढ़वाया।

21 परन्तु हमें आशा थी, कि यही इस्राएल को छुटकारा देगा, और इन सब बातों के सिवाय इस घटना को हुए तीसरा दिन है।

22 और हम में से कई स्त्रियों ने भी हमें आश्चर्य में डाल दिया है, जो भोर को कब्र पर गई थीं।

23 और जब उसका शव न पाया, तो यह कहती हुई आईं, कि हमने स्वर्गदूतों का दर्शन पाया, जिन्होंने कहा कि वह जीवित है।

24 तब हमारे साथियों में से कई एक कब्र पर गए, और जैसा स्त्रियों ने कहा था, वैसा ही पाया; परन्तु उसको न देखा।”

25 तब उसने उनसे कहा, “हे निर्बुद्धियों, और भविष्यद्वक्ताओं की सब बातों पर विश्वास करने में मन्दमतियों!

26 क्या अवश्य न था, कि मसीह ये दुःख उठाकर अपनी महिमा में प्रवेश करे?”

27 तब उसने मूसा से और सब भविष्यद्वक्ताओं से आरम्भ करके सारे पवित्रशास्त्रों में से, अपने विषय में की बातों का अर्थ, उन्हें समझा दिया। (यूह. 1:45, लूका 24:44, व्यव. 18:15)

28 इतने में वे उस गाँव के पास पहुँचे, जहाँ वे जा रहे थे, और उसके ढंग से ऐसा जान पड़ा, कि वह आगे बढ़ना चाहता है।

29 परन्तु उन्होंने यह कहकर उसे रोका, “हमारे साथ रह; क्योंकि संध्या हो चली है और दिन अब बहुत ढल गया है।” तब वह उनके साथ रहने के लिये भीतर गया।

30 जब वह उनके साथ भोजन करने बैठा, तो उसने रोटी लेकर धन्यवाद किया, और उसे तोड़कर उनको देने लगा।

31 तब उनकी आँखें खुल गईं[fn]; और उन्होंने उसे पहचान लिया, और वह उनकी आँखों से छिप गया।

32 उन्होंने आपस में कहा, “जब वह मार्ग में हम से बातें करता था, और पवित्रशास्त्र का अर्थ हमें समझाता था, तो क्या हमारे मन में उत्तेजना न उत्पन्न हुई?”

33 वे उसी घड़ी उठकर यरूशलेम को लौट गए, और उन ग्यारहों और उनके साथियों को इकट्ठे पाया।

34 वे कहते थे, “प्रभु सचमुच जी उठा है, और शमौन को दिखाई दिया है।”

35 तब उन्होंने मार्ग की बातें उन्हें बता दीं और यह भी कि उन्होंने उसे रोटी तोड़ते समय कैसे पहचाना।

यीशु का अपने चेलों पर प्रगट होना

36 वे ये बातें कह ही रहे थे, कि वह आप ही उनके बीच में आ खड़ा हुआ; और उनसे कहा, “तुम्हें शान्ति मिले।”

37 परन्तु वे घबरा गए, और डर गए, और समझे, कि हम किसी भूत को देख रहे हैं।

38 उसने उनसे कहा, “क्यों घबराते हो? और तुम्हारे मन में क्यों सन्देह उठते हैं?

39 मेरे हाथ और मेरे पाँव को देखो, कि मैं वहीं हूँ; मुझे छूकर देखो; क्योंकि आत्मा के हड्डी माँस नहीं होता जैसा मुझ में देखते हो।”

40 यह कहकर उसने उन्हें अपने हाथ पाँव दिखाए।

41 जब आनन्द के मारे उनको विश्वास नहीं हो रहा था, और आश्चर्य करते थे, तो उसने उनसे पूछा, “क्या यहाँ तुम्हारे पास कुछ भोजन है?”

42 उन्होंने उसे भुनी मछली का टुकड़ा दिया।

43 उसने लेकर उनके सामने खाया।

44 फिर उसने उनसे कहा, “ये मेरी वे बातें हैं, जो मैंने तुम्हारे साथ रहते हुए, तुम से कही थीं, कि अवश्य है, कि जितनी बातें मूसा की व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं और भजनों की पुस्तकों में, मेरे विषय में लिखी हैं, सब पूरी हों।”

45 तब उसने पवित्रशास्त्र समझने के लिये उनकी समझ खोल दी।

46 और उनसे कहा, “यह लिखा है कि मसीह दुःख उठाएगा, और तीसरे दिन मरे हुओं में से जी उठेगा, (यशा. 53:5, लूका 24:7)

47 और यरूशलेम से लेकर सब जातियों में मन फिराव का और पापों की क्षमा का प्रचार, उसी के नाम से किया जाएगा।

48 तुम इन सब बातें के गवाह हो।

49 और जिसकी प्रतिज्ञा मेरे पिता ने की है, मैं उसको तुम पर उतारूँगा और जब तक स्वर्ग से सामर्थ्य न पाओ, तब तक तुम इसी नगर में ठहरे रहो।”

यीशु का स्वर्ग को वापसी

50 तब वह उन्हें बैतनिय्याह तक बाहर ले गया, और अपने हाथ उठाकर उन्हें आशीष दी;

51 और उन्हें आशीष देते हुए वह उनसे अलग हो गया और स्वर्ग पर उठा लिया गया। (प्रेरि. 1:9, भज. 47:5)

52 और वे उसको दण्डवत् करके बड़े आनन्द से यरूशलेम को लौट गए।

53 और वे लगातार मन्दिर में उपस्थित होकर परमेश्वर की स्तुति किया करते थे।

Footnotes

1.19 गब्रिएल: गब्रिएल नाम का अर्थ “परमेश्वर का एक शक्तिशाली”, यह सुसमाचार का खास सन्देशवाहक है।

1.35 वह पवित्र: यीशु एक स्त्री द्वारा पैदा हुआ था और इसलिए वह एक वास्तविक मनुष्य था। उसका पिता परमेश्वर है और वह परमेश्वर का पुत्र है।

1.69 सींग: सींग सामर्थ्य, महिमा, और शक्ति का एक प्रतीक है।

1.76 परमप्रधान का भविष्यद्वक्ता कहलाएगा: वह मसीह और सुसमाचार का प्रचारक ही नहीं था, उसने मसीह के आने की भविष्यद्वाणी भी की थी

2.2 क्विरिनियुस: वह सीरिया का राज्यपाल था।

2.36 भविष्यद्वक्तिन: स्त्री भविष्यद्वक्ता को दर्शाता हैं।

2.49 मुझे अपने पिता के भवन में: यीशु यहाँ पर उन लोगों को यह याद दिलाता है कि वह स्वर्ग से नीचे आया; और उसके सांसारिक माता-पिता से, एक उच्चतम पिता है।

3.2 हन्ना और कैफा महायाजक: कैफा, हन्ना या हनन्याह का दामाद था और यह माना जाता है कि वे बारी-बारी से महायाजकीय कार्यभार को देखते थे।

3.22 शारीरिक रूप में: यह एक वास्तविक दिखाई देनेवाली उपस्थिति थी, और निःसंदेह लोगों द्वारा देखा गया था।

4.2 उसकी परीक्षा करता रहा: चालीस दिन तक शैतान ने तरह तरह से उसकी परिक्षाएँ ली थीं।

4.13 तब कुछ समय के लिये उसके पास से चला गया: एक बार के लिए। इससे यह प्रतीत होता है कि यीशु को “उसके बाद” शैतान के द्वारा प्रलोभन दिया गया।

4.17 यशायाह भविष्यद्वक्ता की पुस्तक: यशायाह के भाग सम्मिलित थे।

4.19 प्रभु के प्रसन्न रहने के वर्ष: बन्दी दास और दासी की; भूमि और सम्पत्ति की; ऋण और दायित्वों से सामान्य छुटकारे का वर्ष; (लैव्य 25: 8)।

5.1 गन्नेसरत की झील: इसे गलील की झील, और तिबिरियास की झील भी कहा जाता है।

5.29 बड़ा भोज: स्पष्ट रूप से यह भोज यीशु के लिए किया गया था और बहुत से कर वसूल करनेवालों के द्वारा भाग लिया गया था, मत्ती उन्हें प्रभु के साथ मिलाने और उन्हें अच्छा करने के उद्देश्य से एक साथ लाया था।

5.36 दृष्टान्त: मत्ती 13:3 की टिप्पणी देखें।

6.1 हाथों से मल-मलकर; वे भूसी से अनाज को अलग करने के लिए इसे अपने हाथों से मलते थे।

6.27 अपने शत्रुओं से प्रेम रखो; .... उनका भला करो: जो लोग तुम से नफरत करते है, उनसे नफरत नहीं लेकिन इसके विपरीत हमें उनसे सब प्रकार की भलाई करनी चाहिए।

6.42 कपटी: मत्ती 6:2 की टिप्पणी देखें

7.11 नाईन: यह नगर गलील में था, यह ताबोर पहाड़ी की दक्षिण से लगभग दो मील की दूरी पर, और कफरनहूम से ज्यादा दूर नहीं था।

7.16 इससे सब पर भय छा गया: एक “भय” या गंभीरता उसकी उपस्थिति से जिसे मरे हुओं को जीवित करने की सामर्थ्य थी।

8.2 मरियम जो मगदलीनी कहलाती थी: उसके निवास के स्थान “मगदुला” के कारण ऐसे बुलाया जाता था। यह दक्षिण कफरनहूम के, गलील की झील पर स्थित था।

8.16 दिया जलाकर: यीशु ने लोगों को यह समझाने के लिए बताया; मेरा दृष्टान्त सच्चाई को छिपाने के लिए नहीं है, लेकिन यह और सही से प्रकट करने के लिए है।

8.50 बच जाएगी: वह पहले से ही चंगी हो गई थी: लेकिन उसे प्रोत्साहन के लिये एक आवश्यक वादा, शामिल है कि उनके उपद्रव से उसे और अधिक दु:ख नहीं होना चाहिए।

9.10 बैतसैदा: यरदन नदी के पूर्वी तट पर एक नगर, जहाँ से नदी तिबिरियास के झील में प्रवेश करती है।

9.20 परमेश्वर का मसी: परमेश्वर का “अभिषिक्त”। परमेश्वर की ओर से नियुक्त “मसीह”।

9.30 एलिय्याह: मत्ती 17:3 की टिप्पणी देखें।

9.53 उन लोगों ने उसे उतरने न दिया: उन्होंने उसका स्वागत नहीं किया–उसके सत्कार करने पर विचार नहीं किया, या दयालुता के साथ उससे नहीं मिले।

10.19 साँपों और बिच्छुओं को रौंदने: खतरे से परिरक्षण। यदि हम जहरीले साँपों पर पाँव रखते है कि हम घायल हो जाए, तो परमेश्वर हमें खतरे से बचाने का वादा करता है।

10.29 अपने आपको धर्मी ठहराने: निर्दोष प्रकट होने का इच्छुक

10.32 एक लेवी: लेवी, साथ ही याजक भी, लेवी के गोत्र के थे

10.33 एक सामरी: सामरी यहूदियों के सबसे कट्टर शत्रु थे। वे एक-दूसरे के साथ कोई व्यवहार नहीं रखते थे

10.34 उसके घावों पर तेल और दाखरस डालकर: ये अक्सर घावों को चंगा करने के लिए दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाता था

11.1 प्रार्थना करना .... सीखा दे: हमें प्रार्थना करना सिखा – सम्भवतः चेले यीशु की प्रार्थना की उत्कृष्टता और उत्साह के साथ भरे थे।

11.4 हम भी .... क्षमा करते हैं: जब तक हम दूसरों को क्षमा नहीं करेंगे, तब तक परमेश्वर हमें भी क्षमा नहीं करेगा।

11.40 क्या उसने भीतर का भाग नहीं बनाया: कहने का मतलब परमेश्वर, जिसने “शरीर” बनाया उसी ने “आत्मा” भी बनाया

11.52 ज्ञान की कुँजी: एक कुँजी ताला या दरवाजा खोलने के लिए बनाई जाती है। पुराने नियम की गलत व्याख्या करके वे सच्चाई की कुँजी या समझने की विधि को दूर ले गया।

12.13 सम्पत्ति मुझे बाँट दे: एक पिता के द्वारा अपने बच्चों के लिये छोड़ दिया गया एक भाग सम्पत्ति है।

12.33 अपनी सम्पत्ति बेचकर: अपनी सम्पत्ति बेचकर ऐसी वस्तु में बदल लें, जो दान वितरण में इस्तेमाल किया जा सके।

12.47 वह दास जो अपने स्वामी की इच्छा जानता था: वह परमेश्वर की आज्ञाओं और आवश्यकताओं को जानता है कि क्या हैं, को संदर्भित करता है

12.49 आग: आग, परिणामतः यहाँ पर कलह और विवाद, और आपदाओं का प्रतीक है।

13.3 यदि तुम मन न फिराओगे: हमें अवश्य मन फिराना चाहिए या हम नष्ट हो जाएँगे।

13.6 अंगूर की बारी: एक स्थान जहाँ पर अंगूर की बारी लगाई जाती थी।

13.14 सब्त के दिन उसे अच्छा किया था: चौथी आज्ञा के विपरीत काम करना, यहूदी इसे सब्त का उल्लंघन समझते थे।

14.2 जलोदर का रोग: शरीर के विभिन्न भागों में पानी के संचय के द्वारा उत्पादित एक रोग; बहुत ही चिंताजनक, और आमतौर पर असाध्य है।

14.14 धर्मियों के जी उठने: जब धर्मी या पवित्र मरे हुओं में से जी उठाया जाएगा।

14.24 उन आमन्त्रित लोगों में से कोई मेरे भोज को न चखेगा: जिसने जानबूझकर सुसमाचार को अस्वीकार किया उनमें से कोई भी उद्धार नहीं पाएगा।

15.15 सूअर चराने के लिये: विशेष रूप से “यहूदी” के लिये, यह एक बहुत ही छोटा काम था।

15.24 खो गया था: घर से दूर भटका हुआ था, और हम नहीं जानते कि वह कहाँ था।

15.31 जो कुछ मेरा है वह सब तेरा ही है: सम्पत्ति का बँटवारा किया गया था, बड़े बेटे के लिये क्या वास्तविकता थी, वह सब कुछ का वारिस था और उसे इस्तेमाल करने का अधिकार था।

16.8 ज्योति के लोगों: वे लोग जिन्हें स्वर्ग से ज्ञान प्रकाशन प्रदान किया गया है।

16.20 लाज़र: लाज़र इब्रानी शब्द है, और इसका मतलब मदद के लिये बेसहारा आदमी, एक जरुरतमन्द, गरीब आदमी से हैं।

16.23 अधोलोक: यहाँ अधोलोक का मतलब है अंधेरा, अस्पष्ट, और दुःखी जगह, स्वर्ग से बहुत दूर, जहाँ पर दुष्ट को हमेशा हमेशा के लिये दण्ड दिया जाएगा।

18.13 छाती पीट-पीट कर: अपने पापों को ध्यान में रखते हुए दु:ख और पीड़ा की अभिव्यक्ति।

18.14 धर्मी ठहरा: परमेश्वर द्वारा स्वीकृत या अनुमोदित। “धर्मी ठहराया जाना” शब्द का अर्थ है धर्मी के रूप में माना जाना या धर्मी घोषित करना।

18.31 जितनी बातें .... भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा लिखी गई हैं: वह लोग जिन्होंने मसीह के आने के विषय पहले से कहा, और जिसकी भविष्यद्वाणी पुराने नियम में दर्ज की गई हैं।

19.2 जक्कई: यह इब्रानी नाम है और इसका अर्थ “शुद्ध” है।

19.9 अब्राहम का एक पुत्र: यद्यपि एक यहूदी, अभी तक वह एक पापी है वह अब्राहम का पुत्र कहलाने के योग्य नहीं था

19.22 तेरे ही मुँह से: तेरे स्वयं के शब्दों से, या मेरे चरित्र के विषय तेरे स्वयं के विचार से।

19.41 वह निकट आया तो नगर को देखकर उस पर रोया: दोषी नगर के लिए उसकी सहानुभूति, और इस पर आनेवाली विपत्ति के बारे में उसकी मजबूत भावना को दिखाता हैं।

20.18 चकनाचूर हो जाएगा: वे सभी जो ठोकर और अविश्वास और मन की कठोरता द्वारा गिर जाते है और उसे अपमानित करते हैं।

20.40 पूछने का साहस न हुआ: या, कोई भी अन्य प्रश्न पूछने के लिए उद्यम नहीं किया, फिर से चकित न होने के डर से, जैसा कि वे पहले से ही किया गया था।

20.46 शास्त्रियों से सावधान रहो: जो उद्धार के मार्ग को दिखाना चाहता हैं उनके द्वारा लोगों को आकर्षित नहीं होने के लिए चेतावनी दी गई हैं।

21.5 भेंट: इस शब्द का ठीक अर्थ परमेश्वर के लिए कुछ भी समर्पित या अर्पित

21.18 तुम्हारे सिर का एक बाल भी बाँका न होगा: मतलब यह है कि वे किसी भी चोट से ग्रस्त नहीं होंगे, परमेश्वर अपने लोगों की रक्षा करेगा।

21.26 लोगों के जी में जी न रहेगा: यह भयंकर दहशत को दर्शाती एक अभिव्यक्ति है।

21.36 मनुष्य के पुत्र के सामने खड़े: नजदीक आती विपत्ति न्याय करने के लिए “मनुष्य का पुत्र आ रहा हैं” को दर्शाता हैं।

22.3 शैतान यहूदा में समाया: यह आवश्यक नहीं है कि शैतान व्यक्तिगत रूप से यहूदा के शरीर में प्रवेश किया, परन्तु केवल यह कि वह अपने प्रभाव में ले आया

22.25 उपकारक: यह शब्द वह जो दूसरों को “उपकार” प्रदान करता है को संबोधित करता है।

22.31 गेहूँ के समान फटके: अनाज हवा में हिलाया या छलनी में फटका जाता था।

22.43 उसे सामर्थ्य देता था: यीशु का मानवीय स्वभाव, बड़े बोझ को सम्भालने के लिए जो उसकी आत्मा पर था।

23.7 हेरोदेस की रियासत: हेरोदेस अरखिलाउस, हेरोदेस महान का बेटा है। यह वही हेरोदेस है जिसने यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले को मृत्यु दी थी।

23.34 हे पिता, इन्हें क्षमा कर: यह यशायाह 53:12 की भविष्यद्वाणी को पूरा करता है; यीशु ने अपराधी के लिए मध्यस्थता की।

23.43 स्वर्गलोक: यह “फारसी” मूल का एक शब्द है, और इसका अर्थ “एक बगीचा,” विशेष रूप से खुशियों का बगीचा हैं।

24.16 उसे पहचान न सके: यह अभिव्यक्ति केवल इसलिए प्रयोग किया जाता है कि वे नहीं “जानते” थे कि वह कौन था।

24.19 भविष्यद्वक्ता: परमेश्वर की ओर से भेजा गया एक शिक्षक।

24.31 तब उनकी आँखें खुल गईं: अंधकार हटा दिया गया था। उन्होंने उसे मसीह के रूप में देखा। उनके संदेह समाप्त हो गए 24:49 वादा यह था कि उन्हें पवित्र आत्मा की सामर्थ्य के द्वारा सहायता प्राप्त करना।